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Saturday, April 17, 2010

मीडिया- बाबूजी जरा संभलना

मीडिया- बाबूजी जरा संभलना
पिछले कुछ सालों में मीडिया का एक नया रूप सामने आया है। ऊंगलियों में गिने जाने वाले ये चैनल अब गली में मोड़ पर खुली परचून दुकानों की तरह ही हर कहीं नज़र आने लगे हैं। गलत तरीके से पैसे कमाने वाले सेठनुमा लोग समाज के इस चौथे स्तंभ की ताकत देखकर इसे अपने स्वार्थों की सिद्धी का जरिया बना बैठे हैं.किसी भी तरह से अपनी काली कमाई को बचाने और अपना रूतबा जमाने के लिए आनन फानन में टीवी चैनल खोल कर बैठ गये हैं। शौकिया तौर पर किसी बडे ब्रांड की फ्रेंचाइजी लेकर या किसी अन्य चैनल का लाइसेंस लेकर कुछ समय के लिए चैनल खोल लेने का प्रचलन लगातार बढ़ता जा रहा है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिन्हे पहले से मीड़िया क्षेत्र का अनुभव नहीं है औऱ इनमें पूंजीपतियों से लेकर ठेकेदार,बिल्ड़र तक शामिल हैं।और ऐसे लोगों के लिए एक बड़ा दलाली का ग्रुप भी हाज़िर है जो जुगाड़ नामक व्यवस्था का उपयोग कर इनके लिए लाइसेंस या फिर लीज की व्यवस्था भी कर देता है।यदि आपके पास पैसा है तो इस समय किसी भी चैनल को लीज पर लेने के लिए कुछ लाख रू. से आप अपनी दुकान शुरू कर सकते हैं,या फिर ऐसे लोग भी जिन्होंने मीड़िया की वर्तमान स्थिति का अंदाजा वहुत पहले ही लगा लिया था और समय रहते अपने नाम से चैनल का लाइसेंस भी ले रखा था इस समय ऐसे ही लोगों की चांदी कट रही है सरकार द्वारा नये चैलनों को लाइसेंस देने के नियमों में कड़ाई बरतने और पारदर्शिता बरतने के लिए किये जा रहे प्रयासों के चलते अब ऐसे समय में इनका सिर कढाई में और पांचो उंगलिया घी में।या फिर फ्रेंचाइजी एक ऐसासरल रास्ता है जो आपकों इस दुकानदारी का शौक पूरा करती हैं।देश के चारों महानगरों कोछोड दिया जाये तो मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ जैसे पिछडे राज्यों में फ्रेंचाइजी नामक यह खेल बड़े ही जोरशोर से चल रहा है।मुझे तो लगता है कि ऐसे प्रदेश किसी मेडिकल कालेज के स्टड़ी रूम में पड़े उस मुर्दे की तरह है जिस के शरीर के साथ छात्र पूरी स्वतंत्रता के साथ चीरफाड कर सकते हैं हर तरीके का प्रयोग करने की इजाजत है.जैसा चाहो वैसा .....।फ्रेंचाइजी के इस दौर में अब मीडिया बाजार ने एक नया रूख और किया है,वो पूरे चैनल की फ्रेंचाइजी के बजाय अब मीडिया के दलालों ने बाजार में एक नया कांस्पेस्ट उतारा है डिस्ट्रीब्यूसन और मार्केंटिंग की फ्रेंचाइजी का जी हां एक और बाजार....।खबरों से कोई मतलब नहीं बस पैसा आना चाहिए चाहे जैसे भी आये।फ्रेंचाइजी के माहौल में लाखों करोडों रू में चैनल चलाने औऱ खबरों का अनुबंध करने वाले ये दलाल चैनल की आई डी को जिलेंमें25 हजार से लेकर एक लाख रूपये तक में बेच रहे हैं....औऱ जो लोग इन आई डी को खरीद रहे हैं उनमें से कुछ तो जिलें नामी गिरामी ठेकेदार हैं तो कुछ अपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी हैं जिनका मुख्य उद्देशय मीडिया के रास्ते अपना काम निकलवाना है या फिर प्रशासन पर दबाब बनाना है। साथ ही इन पत्रकारों भाईयो ने(अब चूंकि कैमरा और आई ड़ी हाथ में है इसलिए) इस समय एक नई टरमीनोलॉजी भी इजाद कर दी है किसी ज़माने यह कहा जाता था कि मैं फलां चैनल से जुड गया हूं लेकिन सिर्फ धौक जमाने के लिए बाजार में बिकने आये इन भाईयों ने कहना शुरू कर दिया है कि मै फंला चैनल ले आया हूं,आप ही अंदाजा लगा लीजिए क्या ऐसे माहौल में मीडिया के सिंद्धात और पत्रकारिता को आक्सीजन मिल पाना आसान है।इस समय देश में500 की तादात में टीबी चैनल है जिनमें से कुछ तो महज पांचऔऱछः कमरों में ही चल रहै हैं....।हालात ऐसे हैं कि इन चैनलों के मालिक शौक से तो कुछ महीनों तक पैसा लगाते हैं और जैसे ही इन्हें समझ में आता है कि इस हाथी को खरीदना तो मंहगा पड़ गया बस फिर खेल शुरू होता है उस दौर का जहां से 5 तारीख को मिलनी वाली तनख्वाह कासमय चक्र 25 तारीख तक पहुंच जाता है साथ ही कई बार तो स्थिति इतनी ख़तरनाक बन जाती है कि कई महीनों तक पैसा ही मिलना बंद हो जाता है। पिछले दो एक सालों में कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने आयें हैं।इस दौर का सबसे बुरा असर यदि किसी पर पड़ रहा है तो वे हैं किसी विश्वविद्यालय या संस्थान से पत्रकारिता में कैरियर बनाने निकले वे युवा जिन्हें इन चैनलों में किसी सरकारी दैनिक वेतन भोगी की तर्ज पर काम कराया जाता है। थोक भाव में खुल रहे इन चैनलों में महज 3000 से लेकर 5000 हजार में ही 10 से लेकर 12 घंटों तक अपनी प्रतिभा को खापने में लगे ये छात्र उपेक्षा और हताशा के बीच दम तोडते से नज़र आते हैं।मीड़िया के लिए ख़बर बनाते बनाते ये होनहार कब खुद मीड़िया के लिए ख़बर बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। आये दिन हताशा के बाद ख़ुदकुशी को रास्ता चुन लेने की ख़बरें अब आम बात सी होकर रह गई हैं पिछले दिनों ऐसी ही ना कितनी ख़बर हमारे सामने आई हैं जिनमें हताशा की वज़ह से आत्महत्या या मानसिक तनाव अकाल मौत का कारण बन गई हैं।आखिर ऐसी क्या वज़ह हैं जिसके कारण मीड़िया का स्तर इतना नीचे आ पहुंचा हैं । हालांकि कुछ चीज़ों के लिए हमारी व्यवस्था ही इसकी जिम्मेदार हैं जिसमें मीड़िया का ग्लैमर सबसे ज्यादा जिम्मेदार नज़र आता है चकाचौंध से भरे इस क्षेत्र में स्क्रीन पर नज़र आने की होड इतनी ज्यादा है कि कैरियर के रूप में चुनाव कर आने वाले लड़के या लड़किया हार हाल में समझौते के लिए तैयार रहतेहैं।कन्टेंट और पकड़ से दूर ये लोग शार्टकर्ट से सफलता के पाये चढ़ते खुद को बाजारवाद का हिस्सा बना बैठते हैं तो दूसरी तरफ युवाओं की महत्वकांक्षा का फायदा उठा रहे हैं हर दूसरी गली में चल रहे मीडिया संस्थान जो छात्रों से मोढ़ी रकम ऐठ कर उन्हें सपने दिखा रहे हैं।और जब तक इन युवओं को सारी हकीकत समझ में आती हैं इतनी देर हो चुकी होती है कि लौटने का रास्ता ही उन्हें नज़र नहीं आता है।इस समय भी नये चैनलों के लिए सैकड़ों की तादात में आवेदन पडे हुए हैं।क्या ऐसे समय में सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि आखिर देश को वास्तव में इतने चैनलों की जरूरत है या फिर क्या इन चैनलों की कार्यप्रणाली मीडिया के गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं है। सरकार को कड़े नियम बनाने पडेगें,कड़ी नज़र रखनी पडेगी चैनलों की वर्तमान दशा पर, सरकार को चाहिए की किसी भी चैनल को लाइसेंस देते वक्त वह इस बात की पुष्टि कर ले कि मालिक के पास चैनल चलाने के लिए कम से कम 3-4 सालों का पैसा है या नहीं साथ ही साथ चैनल के मालिक को कितनी आवश्यकता है इसकी, हालांकि देश में हर व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने या शुरू करने की आजादी है लेकिन समाज के चौथे लखडाते स्तंभ की शाख को बचाने के लिए यह कदम नितांत आवश्यक हो जाता है।
आचार्य केशव
(09826171496)