अभी अभी ......


Thursday, September 23, 2010

अयोध्या किसकी.................

5 मुकदमे...30 पक्षकार...और देशभर की संवेदनाएं से जुडा अयोध्या उर्फ श्रीराम जन्म भूमि उर्फ बाबरी मस्जिद......24 को आने वाले ये फैसला 1 हफ्ते के टल गया ............500 सालों से चर्चित तथा 1850 से चले आ रहे देश के इस सबसे बडे विवादित फैसले पर सबकी नज़र टिकी हुई है.....।बडी लंबी जद्दोजहद के बाद अदालत ने इस बार इस विवादित मामले पर फैसला देने की ठानी है....।अदालत को ना सिर्फ इस मामले पर फैसला देना है बल्कि तकरीबन 150 साल पहले अंग्रेजों1885-86में दिये फैसले पर विचार करेगी.........।अयोध्या मामले पर अभी तक कुल 4 मुकदमे विचाराधीन है.इनमें से तीन मामले हिंदु पक्ष के है और एक मामला मस्लिम पक्ष की तरफ से है....।500 साल पहले 1528 में अयोध्या में एक मस्जिद बनी लोगों का मानना है कि इस जगह पर श्री राम का जन्म हुआ था....इस मस्जिद को बाबर ने यहां बनवाया था....मस्जिद के निर्माण के 300 सालों बाद पहली बार इस जगह में 1853 में सांप्रदायिक दंगे हुए ......।तनाव के हाताल देखते हुए ब्रिटिश शासन ने 1859 मे इस जगह पर बाड लगा दी और भीतरी हिस्से पर में हिंदुओ को पूजा करने और बाहरी हिस्से में मुसलमानों को नमाज अदा की इजाजत दे दी...।1949 में इस जगह पर भगवान राम की मूर्तिया पाई गयी और विवाद बढने लगा जिस पर सरकार ने तुरंत कार्यवाई करते हुए विवादित स्थल पर ताला लगा दिया......।लंबे समय तक यह मुद्दा लोगों के दिलों में बैठा रहा और 6 दिसंबर 1992 को कारसेवको द्वारा  मस्जिद को गिरा दिया गया....।
अयोध्या इतिहास के पन्नों पर.....
बाहदुर शाह आलमगीर की पौत्री ने 17 -18 शताब्दी के मध्य एक किताब सफीहा-ए-चलह लिखी थी इस किताब  के जानकार मिर्जा जान के मुताबिक ....."मथुरा,बनारस औऱ अवध के काफिरों के इबादतगाह जिन्हे वे गुनहगार और काफिर कन्हैया की पैदाइगाह,सीता की रसोई और हनुमान की यादगार मानते हैं....इस्लाम की तकात के आगे यह सब नेस्तेनाबूद कर दिय गए और इन सब मुकामों पर मस्जिदें तामीर करवा दी गई है....।" के रूप में बताया है......तो वहीं हदीका-ए-शहदा के मुताबिक 1855 में वाजिद अली शाह के जमाने में हनुमान गढी को हिंदुओं  के कब्जे से वापिस लेने के लिए अमीर अली असेठनी के नेतृत्व में किये गये संघर्ष का विवरण मिलता है....।इसी किताब के अध्याय 9 में इस जगह को राम के वालिद की राजधानी बताया गया है...।जहां पर एक बड़ा मंदिर होना बताया गया है।इसी जगह पर सीता की रसोई जिसे आज भी सीता पाक के नाम से जाना जाता है का भी जिक्र है...।
विवाद की जड क्या......
हिंदुओं का मानना है कि इस जगह पर भगवान राम  का जन्म हुआ था....जिसे साबित करने के लिए विश्व हिंदु परिषद् ने 1990 में इतिहासकारों एवं पुरात्तववेत्ताओ के लेखों के साथ ही कई तरह के आकंडे और नक्शों के साथ रिकार्ड भी पेश किया.....।तो मुस्लिम पक्षकारों का कहना है  1528 से लेकर 1885 तक के आंकडों के अनुसार यहां पर मुस्लिमों का हकहै। विवाद के शरूआत में तो मुद्दा केवल उन मूर्तियों का था जो मस्जिद के आंगन में पहले से ही रखीथी...जिन्हे दोबारा वहां पर स्थापित किया जाये।  जैसे जैसे विवाद बढता गया मंदिर और मस्जिद के दायरे भी बढते गये.....शरूआत में इस मुकदमें कुल 23 प्लाट शामिल थे जिनका रकबा कम था....लेकिन 1993 के बाद इस विवाद को हल करने के लिए मंदिर मस्जिद दोनो को बनवाने केलिए मस्जिद समेत 70 एकड जमीन अधिग्रहीत कर ली गई है।
अब तक के अदालती फैसले....
अब तक अदालत से आये फैसलों मे ंसबसे पहले1950 में फैजाबाद कोर्ट ने रामलला की मूर्तियां हटाने अथवा पूजा में हस्तक्षेप पर रोक लगा दी।मंहत रघुवरदास ने जन्मभूमि पर एक चतुबरे के निर्माण की मांग की थी.... जिसे फैजाबाद अदालत ने खारिज कर दिया था।1955 में पूजा स्थल में ताला लगा दिया ....औऱ पुनः1986 को अदालत ने ताला खोलने के आदेश दिये।1994 मे  सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी राय  देने से इंनकार कर दिया क्या वहां कोई मंदिर तोडकर मस्जिद बनाई गईथी। और फिर मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट को सौप दिया गया।
                          

Monday, September 20, 2010

इन हाथों में साथ रहने की लकीरें ही कम थी...

वो मौसम वो बहार उसके सामने कम थी,
साथ गुज़रा हुआ वक़्त वो फिजा कम थी,
दूर तो आखिर होना ही था जालिम,क्या करें,
इन हाथों में साथ रहने की लकीरें ही कम थी...

Tuesday, September 14, 2010

रोटी छीनकर सेंकते हैं रोटियां वो....................


कॉमनमैन के पैसे से कॉमनवेल्थ गेम्स करा रहे हैं वो....औऱ ये कॉमनवेल्थ गेम्स भ्रष्टाचार की वो कहानी कह रहे हैं जिससे कॉमन मैन का ही भरोसा सरकार से उठता जा रहा है।किसी विदेशी अखबार ने कुछ दिनों पहले ही भारत में हो रहे कॉमन वेल्थ गेम्स में हुए घोटाले को लेकर कहा है कि इस मामले में कम से कम भारत को भ्रष्टाचार का तो गोल्ड़मेडल मिल ही जायेगा। गरीबों की रोटिया छीनकर कॉमनवेल्थ की आड में अपनी रोटियां सेंक रहे इसके सर्वेसर्वा क्या कभी कठघरे में आ पायेगें?आयेगें तो कब आयेगें ? यह सवाल हर किसी के मन में है।अजीब बात है जिन गोरों ने हमें गुलाम बनाया उन्हीं की गुलामी की याद में हम कामनवेल्थ गेम्स के जलसे की मेजबानी कर रहे हैं। जब कॉमन वेल्थ गेम्स की तैयारी की जा रही थी तो इसके उद्देश में कहा गया था समानता मानवता और नियति को उल्लेखित किया गया था लेकिन समझ नहीं आता है कि जिसदेश में 35 करोड जनता भूखी सोती है उस देश में अस्सी हजार करोड का खेल समारोग आयोजित कर कैसे समानता  आएगी और जिनके हाथ भ्रष्टाचार से सने हों यह कैसे मानवता लायेगें। ऐसे में नियति की क्या बात की जाए।कितनी बड़ी विडवना है कि जो सरकार लेह त्रासदी के लिए 125 करोड देती है वही एक स्टेडियम के लिए 300 करोड फूंक देती है।पिछले डेढ साल से तैयारियो कीराग अलापने के बाद भी कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन अधूरे निर्माण कार्यों और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है।चीन को देखें एशियन गेम्स के 100 दिन पहले से ही वहां पर सारी तैयारियां पूरे हो चुकी थी और हमारे यहां 3 अक्टूबर से शुरू हो रहे  इन खेलों के लिए अभी भी हायतौबा मची हुई है।औऱ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका ये आयोजन सफल हो भी पाता है या नही यह भी भगवान भरोसे है।इन खेलों के लिए आ रहे पैसों की बात करें तो इस पूरे खेल आयोजन में कुल 8324 करोड का अनुदान दिया गया है।महाराष्ट्र सरकार और उसकी शाखा कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स की तरफ से 351 करोड रुपये का अनुदान दिया गया है...दिल्ली सरकार  1770करोड  रूपये व्यय  कर रही है इस आयोजन पर।इसके अतिरिक्त दिल्ली सरकार निर्माण,पानी,यातायात आदि पर भी करोडों रूपये खर्च कर रही है।पूरे आयोजन की तैयारियों पर अब तक कुल 10445 करोड खर्च किया गया है ।तो दूसरी तरफ इन खेलों में हो खर्चें में भ्रष्टाचार का वो रूप सामने आय़ा है जिसने पूरे देश में हल्ला मचा रखा हुआ है।इन खेलों में  भारत की साफ और स्वच्छ तस्वीर दिखाने के चक्कर में दिल्ली में बसे भिखारियों,हाथ ठेले वालो ,रिक्शा चालकों को भगाया जा रहा है कुछ तो रोजाना गायब हो रहे हैं ,रात के अंधेरे में यह काम दिल्ली सरकार के इशारे पर हो रहे किसी को धमकाया जा रहा है तो किसी को पैसों का लालच देकर भगाया जा रहा है लेकिन दूसरे पक्ष पर अभी तक किसी ने भी गौर नहीं किया है और वो इस पूरे खेल के पीछ सक्रिय मानव अंग की तस्करी करने वाले गिरोह .................इस पूरे मामले मे देखा जाये तो सरकार कह रही है कि लोग गायब नहीं हुए बल्कि यहां से बाहर भेज दिये गये ..........पर मामला पूरी तरह से साफ हो ऐसा भी नहीं लग रहा है। सरकार के इशारे पर हो रहे इन देश निकाला खेल पर भी एक बडेखुलासे की जरूरर हो सकती है.........औऱ वो दिन भी दूर नहीं होगा जब किसी दिन अचानक इस खबर पर भी बवाल मच जाये....।पहली बार दिल्ली में आयोजित इन खेलों को लेकर सरकार ने अब तक दस हजार करोड रूपये से भी ज्यादा पैसा फूंक चुकी है......लेकिन कहां किसी को नहीं पता ............बाजार में मिलने वाली 1.60 हजार की ट्राली बेड को इन खेलों के लिए पौने तीन लाख में खरीदा गया...........शिफ्टिगं ट्राली की कीमत बाजार में 40 हजार तो इन खेलों के लिए इसे 72 हजार में खरीदा गया है......जिसकी कीमत जिसकी कीमत एक करोज 77 लाख है।दोनो ट्राली को मिलाकर सरकार ने कुल 124 ट्राली बेग और 36 शिफ्टिंग ट्राली खरीदी है..........सिर्फ इन दोनो की खरीदी पर ही सरकार  ने जनता तीन करोड रूपये से भी ज्यादा का चूना लगाया है। यानि की यदि पूरे आयोजन पर की खरीदी की व्याख्या  की जाये तो  यह कहा जा सकता है यह कॉमन वेल्थ गेम्स नही बल्कि गेम ऑफ वेल्थ ज्यादा सटीक है......

Monday, September 13, 2010

मोटे तौर पर देखें तो भारत में सब ठीक-ठाक ही चल रहा है।

न हम किसी युद्ध में फंसे हैं, न कोई दंगे हो रहे हैं, न चीन और पाकिस्तान की तरह हजारों लोग बाढ़ में मर रहे हैं, न सरकार के गिरने की कोई नौबत है। विकास दर में बढ़ोतरी हो रही है, महंगाई थोड़ी घटी है, करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों को हम करोड़ों रुपए यों ही दे देते हैं। हमारे दिल्ली जैसे शहर यूरोपीय शहरों से होड़ ले रहे हैं।
हजारों करोड़ रुपए हम खेलों पर खर्च कर रहे हैं तो फिर रोना किस बात का है? देश में एक अजीब-सा माहौल क्यों बनता जा रहा है? खासतौर से तब जबकि देश के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा पक्ष और विपक्ष की भूमिका निभाने की बजाय पक्ष और अनुपक्ष की तरह गड्ड-मड्ड हो रहे हैं?
ऐसा क्या है, जो देश को दिख तो रहा है, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है?,जो समझ में नहीं आ रहा, वह एक पहेली है। पहेली यह है कि देश में संसद है, सरकार है, राजनीतिक दल हैं, लेकिन कोई नेता नहीं है? सोनिया गांधी लगातार चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गईं। रिकॉर्ड बना, लेकिन कोई लहर नहीं उठी। डॉ मनमोहन सिंह ने भी रिकॉर्ड कायम किया। नेहरू और इंदिरा के बाद तीसरे सबसे दीर्घकालीन प्रधानमंत्री हैं, लेकिन वे हैं या नहीं हैं, यह भी देश को पता नहीं चलता।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। ऐसी स्थिति, जिसमें होना न होना एक बराबर ही होता है। इसमें जरा भी शक नहीं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच जैसा सहज संबंध है, वैसा सत्ता के गलियारों में लगभग असंभव होता है। भारत में सत्ता के ये दो केंद्र हैं या एक, यह भी पता नहीं चलता। न तो उनमें कोई तनाव है और न ही स्वामी-दास भाव है, जैसा कि हम व्लादिमीर पुतिन और दिमित्री मेदवेदेव के बीच मास्को में देखते हैं।
इसी प्रकार सत्ता पक्ष और विपक्ष देश में है तो सही, लेकिन कहीं कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती। छोटे-मोटे क्षेत्रीय दल जो कांग्रेस के साथ हैं, उनके नेता भ्रष्टाचार के ऐसे मुकदमों में फंसे हुए हैं कि कांग्रेस ने जरा स्क्रू कसा नहीं कि वे सीधे हो जाते हैं।
जिस बात का वे निरंतर विरोध करते हैं, उसी पर दौड़कर समर्थन दे देते हैं। जैसा कि परमाणु सौदे पर पिछली संसद में हुआ था। कांग्रेस का हाल भी वही है। वह उनके ब्लैकमेल के आगे तुरंत घुटने टेक देती है। जिस जातीय गणना का कांग्रेस ने 1931 में और आजाद भारत में सदा विरोध किया, अब कुछ जातिवादी क्षेत्रीय दलों के दबाव में आकर उसने अपनी नेता की भूमिका तज दी और अब वह उन अपने समर्थक दलों की पिछलग्गू बन गई है।
सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता पर आरूढ़ जरूर है, लेकिन कई मुद्दों पर वह पत्ता भी नहीं हिला सकती। इससे भी ज्यादा दुर्दशा विपक्षी दलों की है। कम्युनिस्ट पार्टियां अभी भी मुखर हंै, लेकिन पिछले चुनाव में वे अपने गढ़ों में ही पिट गईं। उनका आपसी लत्तम-धत्तम इतना प्रखर हो गया है कि उनके मुखर होने पर देश का ध्यान ही नहीं जाता। जोशी-डांगे-मुखर्जी और नंबूदिरिपाद की कम्युनिस्ट पार्टियों में आज के जैसा संख्या-बल नहीं था, लेकिन वाणी-बल था, जो सारे देश में प्रतिध्वनित होता था।
नेहरू जैसे नेता को भी उस पर प्रतिक्रिया करनी पड़ती थी। आजकल यही पता नहीं चलता कि वामपंथ का असली प्रवक्ता कौन है। मार्क्‍सवादी पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने परमाणु-हर्जाना विधेयक का विरोध जरूर किया, लेकिन वह नक्कारखाने में तूती की तरह डूब गया। वे दिन गए, जब लोहिया के पांच-सात लोग पूरी संसद को अपनी चिट्टी उंगली पर उठाए रखते थे। अब दिन में दीया लेकर ढूंढ़ने निकलो तो भी कोई समाजवादी नहीं मिलता।
इतनी बड़ी संसद में क्या एक भी सांसद ऐसा है, जो लोहिया की तरह पूछ सके कि प्रधानमंत्रीजी, आप पर 25000 रुपए प्रतिमाह कैसे खर्च हो रहे हैं और आम आदमी तीन आने रोज पर कैसे गुजारा करेगा? अब तो पूंजीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी- सभी एक पथ के पथिक हो गए हैं।
सबसे बड़े विपक्षी दल के तौर पर भाजपा जबर्दस्त भूमिका निभा सकती थी, लेकिन वह बिना पतवार की नाव बन गई है। उसका अध्यक्ष भी कांग्रेस अध्यक्ष की तरह आसमान से उतरने लगा है। वह अपने नेताओं के कंधों पर बैठा है, लेकिन उसके पांव नहीं हैं। उसे पांव की जरूरत भी क्या है?
भाजपा में हाथ-पांव ही हाथ-पांव हैं। यह कार्यकर्ताओं की पार्टी ही तो है। इसमें गलती से एक नेता उभर आया था। उसे जिन्ना ले बैठा। अब कांग्रेस की तरह भाजपा के शिखर पर भी शून्य हो गया है। ये शून्य-शिखर आपस में जुगलबंदी करते रहते हैं। शून्य-शिखरों की इस जुगलबंदी में से कुछ समझौते निकलते हैं और कुछ शिष्टाचार निभते हैं, लेकिन कोई वैकल्पिक समाधान नहीं निकलते। भारत की राजनीति में से द्वंद्वात्मकता का तिरोधान हो गया है।
यह एकायामी (वन डायमेंशनल) राजनीति नौकरशाहों और सरकारी बाबुओं के कंधों पर टिकी हुई है। इसमें पार्टियों की भूमिका गौण हो गई है। जनता और सरकार के बीच पार्टी नाम का सेतु लगभग अदृश्य हो गया है। जब पार्टी ही अप्रासंगिक हो गई है तो नेता की जरूरत कहां रह गई है? बिना नेता के ही यह देश चला जा रहा है। यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा अजूबा है। बाबुओं के दम पर बाबुओं का राज चल रहा है। आम जनता के प्रति हमारे बाबुओं का जो रवैया होता है, वही आज हमारे नेताओं का है।
देश में अगर आज कोई नेता होता तो क्या वह अनाज को सड़ने देता? यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए, लेकिन भूखों को मुफ्त बांटने के विरुद्ध ऐसे तर्क वही दे सकता है, ‘जाके पांव फटी न बिवाई’! सरकार तो सरकार, विपक्ष क्या कर रहा है?
वह उन गोदामों के ताले क्यों नहीं तुड़वा देता? धरने क्यों नहीं देता? सत्याग्रह क्यों नहीं करता? भ्रष्टाचार क्या सिर्फ केंद्र में है? क्या राज्य सरकारें दूध की धुली हुई हैं? भाजपा और जनता दल के राज्यों में कोई चमत्कारी कदम क्यों नहीं उठाया जाता? माओवादियों से पांच-सात राज्य ऐसे लड़ रहे हैं, जैसे वे पांच-सात स्वतंत्र राष्ट्र हों। क्यों हो रहा है, ऐसा? इसीलिए कि देश में कोई समग्र नेतृत्व नहीं है। चीनियों के आगे भारत को क्यों घिघियाना पड़ रहा है?
कश्मीर में कोरे शब्दों की चाशनी क्यों घुल रही है? कोई बड़ी पहल क्यों नहीं हो रही है? इसीलिए कि भारत की राजनीति के बगीचे में सिर्फ गुलदस्ते सजे हुए हैं। इन गुलदस्तों में न कोई कली चटकती है और न फूल खिलते हैं। जो फूल सजे हुए हैं, उनमें खुशबू भी नहीं है। भारत का नागरिक समाज या चौथा खंभा भी इतना मजबूत नहीं है कि वह नेतृत्व कर सके। इसके बावजूद भारत है कि चल रहा है। अपनी गति से चल रहा है। शिखरों पर शून्य है तो क्या हुआ? मूलाधार में तो कोई न कोई कुंडलिनी लगी हुई है।

Wednesday, September 1, 2010

मैदान में उतरा गांधी


पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।
वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी।राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने गांधीहोने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

(साभार संजय द्विवेदी  जी)