रातों में उठ-उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
सुनकर अपनी ही प्रतिध्वनियां मन एकाकी हर पल हारा
सन्नाटों के कोलाहल में मन की वाणी खो जाती थी
विस्तृत अंतर के आंगन में यादें चंचल हो जाती थी
जब जब झपकी बोझिल पलकें मैने देखा रूप तुम्हारा
रातों को उठ उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
दूर गगन से चांद सितारे देख रहे थे मन की पीडा
आंसू के सागर में पुतली करती रही मीन सी क्रीडा
उषा की किरणों तक प्रियतम चलता रहा खेल ये सारा
रातों को उठ उठ कर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
क्षण क्षण यादें और यामिनी करती रहीं प्यार की बातें
पास पडा मन रहा सिसकता तकता रहा भोर का तारा
रातों को उठ उठ कर तुमको प्रियतम मैने कितनी बार पुकारा...
Monday, January 17, 2011
दुखांत आखिर होता क्या है...?
और वास्तविकता के होंठ कभी शहद को चख ना सके
दुखांत यह होता है रात की कटोरी पर से चंद्रमा की कलई उतर जाये
और उस कटोरी में पडी हुई कल्पना कसैली हो जाये
दुखांत यह नहीं होता कि आपकी किस्मत से आपके साजन का नाम पता न पढा जाये
और आपके उम्र की चिट्ठी सदा रूलती रहे
दुखांत यह होता है कि आप अपने प्रिय को अपनी उम्र की सारी चिट्ठी लिख लें
और फिर आपके पास से अपने प्रिय का नाम पता खो जाए
दुखांत यह नहीं होता कि जिंदगी के लंबे डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहे
और आपके पैरों से सारी उम्र लहूं बहता रहे
दुखांत तो यह होता है कि आप लहु लुहान पैरों से एक जगह खड़े हों जायें
और जिसके आगे से कोई भी रास्ता आपको बुलावा ना दें.....!!!
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