अभी अभी ......


Monday, December 6, 2010

ये परदा हसता है...

सिनमाई परदा बहुत कुछ कहता है...मसलन ये ना सिर्फ मंनोरंजन एक माध्यम है  बल्कि अभिव्यक्ति का एक हस्ताक्षर भी है.. इस माध्यम से अभिव्यक्ति का एक सशक्त हस्ताक्षर है..हास्य। सिनमाई परदें पर एक्शन .से भी ज्यादा लोगो हास्य को स्वीकार किया है...।यही कारण  साल भर में रिलीज होनेवाली फिल्मो में ज्यादातर फिल्म हास्य प्रधान होती हैं।..ये फिल्में लोगों केबीच ज्यादा यादगार तो होती ही हैं ज्यादा से ज्यादा याद भी की जातीहैं यही कारण है कि हर कलाकार पर्दे पर एक हास्य औरयादगार भूमिका निभाने के लिए लालयित रहता हैं। भारतीय परिवेश में उन फिल्मों को सफल माना जाता है जो
दर्शकों को हंसने पर मजबूर कर दें।दसअसल आज का दर्शक मल्टीप्लेक्स कल्चर में एक मोटीरकम खर्च कर विशुद्ध मंनोरंजन  की उम्मीद करता है...।और उसका ये मंनोरंजन पूरा होता है हास्य फिल्मो सें। वैसे हास्य प्रधान फिल्मों हमेशा ही सराहा गया है...फिर बातचाहे चलती का नाम गाडी से हो या फिर मुन्ना भाई हो....।कॉमेडी फिल्मों की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी की उलझनों के करीब पाते हैं।जो फिल्में हमारी जिंदगी के बीच जितनी करीब होती हैं वो उतनी सफल हो पातीहैं। किशोर कुमार की हाफ टिकट,कमल हसन की पुष्पक और चाची चार सौ बीस..से लेकर पंकज अडवाणी की अनरिलीज्ड उर्फ प्रोफेसर एक मिशाल हैं लोगों के दिलों में घर कर जाने और फिल्म इतिहास मेंमील का पत्थर साबित होने में...। गोलमाल में जिस तरह से जहीन हास्य को जिदंगी से जुडे किसी प्रगतिशील मूल्य से जोडागया है वह अपने आप में
अमूल्य हैं...।ऋदि दा की रिपीट फिल्मों में गोलमाल एक मील कापत्थर है....।इस फिल्म के लिए अमोल पालेकर को बेस्ट एक्टर का फिल्म फेयर का अवार्ड दिया गया था...।१९७९ में आई गोलमाल के बाद १९८२ की अंगूर..को फिल्मों में शेक्सपीयर का आगमन माना जाता है...इस फिल्म में गुलजार साहब
ने शेक्सपीयर के नाटक कामेडी ऑफ एरर्स को क्याखूब तरीके से हिंदुस्तानी लिबास पहनाया है...। वहीं चलती का नाम गाडी(१९८५) में हिंदी सिनेमा के आलराउंडर किशोर कुमार और दोनो भाईयों दादा मुनि और अनुप की बेमिशाल जोडी की धरोधऱ हैं। गोल्डन फिफ्टी की यह एक मशहूर कामेडी फिल्म है....।वहीं १९८१ में आई चश्मे बदूर अपने समय की बेहतरीन फिल्म है जिसकी खाम बात इस फिल्म में अपने समय और परिवेश में रचा बसा हास्य हैं।इसके कई संवादों में उस समय की कालेज लाइफ का कोई ना कोई संदर्भ जरूर है...।तो १९८३ मेंहिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे  बडीकेल्ट क्लासिक है जाने भीदो यारो।मात्र कामेडी ना होकर एक स्याह रंग लिए यह फिल्म विकास की अंधी दौड में शामिल लिबरल हिंदुस्तान की जीती जागती मिशाल हैं।२००६ में आई खोसला का घोंसला दिल्ली के मिडिल क्लास तबका पेशा लोगों की ऐसीकहानी है
जो कहीं कहीं हमारी जिंदगी के कुछ कतरन उधार लेकर बनाई गई है। निर्देशक दिबाकर मुखर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मार्डन कल्ट कही जाने वाली यह हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश दा ,बासु चर्टजी,और संई पराजंपे की परंपरा को आगे बढाती हैं।तो वहीं२००६ की ही केमिकल लोटा वाली फिल्म लगे
रहो मुन्ना भाई...एक ऐसा हिंदुस्तानी पब्लिक मेल है जिसने लोगों के दिलो में ही नहीं बाद में मुस्कुराने को मजबूर कर दिया।एक मौलिक कहानी के साथ साथ इस फिल्म में कई प्रांसगिक संदेश भी हैं..जो हमें कदम कदम पर सोचने को मजबूर करते हैं।.....

Thursday, December 2, 2010

मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन

तेग मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो शाहिद
बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा.....?



एक तरफ आंसूओं से डबडबाई आंखे......पिछले २५ सालों के जख्मों को महसूस कर रही होगीं....तो दूसरी तरफ सत्तासीन कहीं दूर शादी के जश्न मे डूबे तमाम लोग........ये दो चेहरे हैं एक हैं अपने हक के लिए लड रहे  उन मासूम लोगों का जिन्होनें अपने  जीवन का सब कुछ लुटा दिया है..... दूसरा चेहरा
है....उन सफेदपोशों का जिन्होनें कुछ दिनों पहले ही कोर्ट के फैसले को लेकर हाय तौबा की थी............कुछ महीने ही बीतें है लेकिन अब इन सफेदपोशों के लिए हजारों लोगों के आंसूओं का मोल शायद ही कुछ बचा
हो.....कभी राज्य और कभी केंद्र के पालों के बीच झूलते ये बेबस ना जाने कितनी बार छले गये हैं....इनके लिए आज  वो रात उतनी भयावह और डरावनी नहीं जितनी कि इन नेताओ की  बातें हैं.......हर साल भोपाल गैस त्रासदी के नाम पर हो रहे पाखंड के बीच फंसी जनता को इंतजार है तो इस बात का किआखिर कब
उन्हें सही न्याय मिल पायेगा....लंबी लडाई के बाद जिन्हें अगर कुछ मिला भी तो किसी मजाक से कम नहीं था...........जिन लोगों को मुआवजा मिला और जितना मिला यदि प्रति व्यक्ति हिसाब लगाया जाया तो मौत के इस तांडव की कीमत महज ५ रू दिन है......ये मलहम है उन हुक्मरानों का जिन्होंनें इन अभागे जिंदा बच गये लोगों की कीमत लगाई......।शुरूआती समय में यह राशि तय की गई थी महज कुछ हजार जानों औऱ लाखों के घायलों के लिए जिस बांटा गया कई गुना ज्यादा  लोगों के बीच......। पर हालात अब भी नहीं बदलें हैं....लोगों के बीच अपनों को खोने का दुख आज भी उतना ही ताजा है......आज भी लोग जब उन गलियों से गुजरते हैं तो बिछडों की यादे बरवस ही उन्हें रूला जाती हैं.....यह भोपाल की बिडंवना है कि भोपाल गैस कांड की बरसी पर
प्रदेश के तमाम जिम्मेदाराना लोग दूर कहीं....सफेदपोशों के माफिख जीहुजूरी में लगें होगे.......कोई मातहत को खुश करने प्लेट लिये दौडा जा रहा होगा तो कोई.....किसी के लिए शरबत का इंतजाम करने की भागमभागम में
लगा होगा.....ये वही लोग हैं जो कुछ दिन पहले ही भोपाल गैस कांड पर आये फैसले को न्याय की बलिवेदी पर इन मरहूम आत्माओं की आत्महत्या मान रहे थे....और आज जब भोपाल में तमाम जिंदा और चलती फिरती लाशें अपनो को याद कर रही होगीं.....तो ये नदारत होगें....।२६ सालों का दर्द आज भी इनके सीने में उसी रफ्तार से दौड रहा है ....यह अलग बात है कि इन सवा पांच लाख लोगा का दर्द सरकार और उनके हुक्मरानो के लिए महज एक मंहगी दुर्घटना के बदले मे निकले धुँए के आलावा और कुछ भी नहीं है...तब से लेकर अब तक देश में आठ बार प्रधानमंत्री की कुर्सी बदली, मध्य प्रदेश में आठ नए मुख्यमंत्री बने ......लेकिन फिर भी  इन बड़े नेताओं को कभी भी यह नहीं लगा कि भोपाल में जो घोर अन्याय हुआ है, उसका प्रायश्चित होना चाहिए....। आज   इस नरक यात्रा की २६ वी वर्षगांठ है....और एक बार इन नरक यात्री के साथ है तो केवल उनके प्रियजनों की यादें और उनके आंसू....और एक बार फिर खत्म ना होने वाला लंबा इतंजार......ठीक इसी वक्त बाबा धरणीधर याद आते हैं...
"...हर जिस्म जहर हो गया एक दिन
मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन
फर्क था न लाश को जात पांत का
नस्ल रंग आज सब साथ साथ था
हिंदू का हाथ थामते मुस्लिम का हाथ था
जां जहाँ था मौत के हाथ था...
हर जर्रा शरर हो गया भोपाल एक दिन
मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन.."