अभी अभी ......


Tuesday, August 10, 2010

मैं आपसे पूछता हूं.......क्या ये भारत के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं

ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने भारत और पाकिस्तान में पाए जाने वाले एक नए किस्म के बैक्टीरिया - सुपरबग - की विश्व भर में सख़्त निगरानी का आहवान किया है.....मेडिकल पत्रिका लैंसेट में छपे एक अध्ययन में कहा गया है कि ब्रिटेन में ये बैक्टीरिया उन मरीज़ों के साथ आया है जो भारत या पाकिस्तान में कॉस्मेटिक सर्जरी जैसे उपचार करवा कर लौटे हैं.कहीं वैश्विक स्वास्थ्य व्यापार की रणनीति हिस्सा तो नहीं...जिसमें भारत की चिकित्सा सेवाओं को विवादों में घसीटा जा सके....।क्योंकि अमेरिका समेत यूरोपियन देशों से शिक्षा और स्वास्थ्य के बडे केंद्र फिसल रहे हैं...दसअसल भारत और चीन उन भूमंडलीय ठिकानो में बदल रहे हैं जहां हर किसी के लिए ज्ञान और स्वास्थ्य affordable है.....।

बिन भाषा के गूंगे बहरे राष्ट्र में काहे की आजादी

कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? क्योंकि यह मुद्दा भी देश की उन्नति-प्रगति से जुड़ा है।
हिंदी औऱ हिंदी...!
   मुझे पिछले साल गुजरात का एक मामला याद है जहां  हाई कोर्ट में पीआईएल दायर करते हुए मांग की गई थी कि सामानों पर हिन्दी में डीटेल लिखे होने चाहिए और यह नियम केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लागू करवाए जाने चाहिए। वहीं पीआईएल में कहा गया था कि डिब्बाबंद सामान पर कीमत आदि जैसी जरूरी जानकारियां हिन्दी में भी लिखी होनी चाहिए। जिसके तर्क में कहा गया कि चूंकि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा है और देश के अधिकांश लोगों द्वारा समझी जाती है इसलिए यह जानकारी हिन्दी में छपी होनी चाहिए।इस पीआईएल के फैसले  में चीफ जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने यह कहा कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है क्योंकि हिन्दी तो अब तक राज भाषा यानी ऑफिशल भर है। अदालत ने पीआईएल पर फैसला देते हुए कहा कि निर्माताओं को यह अधिकार है कि वह इंग्लिश में डीटेल अपने सामान पर दें और हिन्दी में न दें। अदालत का यह भी कहना था कि वह केंद्र और राज्य सरकार या सामान निर्माताओं को ऐसा कोई आदेश जारी नहीं कर सकती है। तो दूसरी तरफ अब एक नये सवाल ने एक बार फिर हिंदी और उसकी महत्ता पर प्रश्न चिंह लगा दिया लोगों द्वारा सुझाव दिया जा रहा कि इसे देवनागरी से रोमन कर दिया जाए । पिछले कुछ सालों में हमने ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जितनी आसान राह को पकडना चाहा है पकड़ा है....।हिंदी की यह नई बहस उसी सहजता पाने का एक तरीका है .....लेकिन सवाल यह है कि क्या देवनागरी से रोमन कर देने मात्र से समस्या हल हो जायेगी ........क्या हिंदी की अभिव्यक्ति और उसकी विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा,क्या हमारे विचार वयक्त करने की प्रकृति पर कोई अंतर नही पडेगा...इतिहास गबाह कि विलुप्त की कगार में जितनी भी भाषाएं आई है उनका सबसे बड़ा कारण यही है...(पुराने एक लेख विलुप्त की कगार में भाषाएं में उद्धत है)।और अगर हमने इस रोमन में कर भी दिया तो क्या हिंदी का बच पाना संभव है...है तो फिर किस और कितने रूप में...।भाषा महज संवाद का माध्यम नहीं होती है ....और लिपि का संबंध भाषा से अन्नय रूप से जुडा होता है...। तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण की चपेट में आया युवा जो इसी रोमन को इस्तेमाल कर खुश हो रहा है..। वह हिंदी को भारत से उठा कर इंडिया की तरफ ले जाना चाह रहा है.......।उसे तो वह सहज और सरल हिंदी चाहिए जो उसके सिस्टम(कंप्यूटर) पर सहज रूप से चल सके...।
आखिर हिंदी ही क्यो नहीं .....?
अगर गुजरात हाई कोर्ट के फैसले की बात करें तो कोर्ट का यह फैसला भारत यानी ऐसे देश (राष्ट्र नहीं ) में आया है, जिसमें राष्ट्रभाषा का प्रावधान संविधान में ही नहीं है, यहां उपलब्ध है तो केवल राजभाषा... यानी सरकारी काम की भाषा। यह स्थिति उस हाल में है जब देश की लगभग 60 फीसदी आबादी यानी करीब 65 करोड़ लोग इस भाषा का इस्तेमाल कई बोलियों के साथ करते हैं। अब सवाल यह है कि इनमें से कितने लोग होंगे जो संपर्क भाषा यानी अंग्रेजी नहीं जानते होंगे। जनसंख्यागत और शैक्षणिक आंकड़ों को देखा जाए तो इनमें से ठीक से अंग्रेजी में काम करने वालों का प्रतिशत बमुश्किल 10 से 15 फीसदी निकल पाएगा। यानी दवा के लेबलों से लेकर कानून, शिक्षा और कारपोरेट उत्पादों की बेढंगी दुकानों के उत्पाद और उनकी टर्म एंड कंडीशन इनकी समझ से बाहर होंगी। ऐसे लोगों की संख्या होगी करीब 55 करोड़ यानी लगभग आधा देश। शेष बचे लोगों के हालात क्षेत्रीय भाषा के बाद संपर्क भाषा में कैसे होंगे इस पर तर्क-वितर्क की गुंजाइश है, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे। अब स्वतंत्रता दिवस पर भारत को राष्ट्र कहने का दंभ भरने वाले नेता और अकल बेचने वाले व्यक्ति-संस्थान देखें कि क्या कारण रहा कि आजादी के साठ साल बीतने पर इंडिया (हिंदुस्तान नहीं) के पास आधिकारिक रूप से राष्ट्रभाषा नहीं है, यानी आधी आबादी को भाषा के लकवे से विकलांग कर पढ़े-लिखे जाहिलों के बीच अपनी सत्ता की दुकानें आराम से चलाते रहें।

वोटबैंक के लिए अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी भाषातंत्र व देश में क्षेत्रीय भाषाओं की ओट लेने वाले नेता और ज्ञान-विज्ञान के नाम पर अंग्रेजी की दुहाई देने वाले लोग, इन पचास करोड़ से ज्यादा ज्ञान वंचित हिंदी भाषियों के लिए क्या करेंगे? क्या वे राष्ट्र गौरव के नाम पर हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिला कर चीन, जर्मनी, रूस और जापान की राह पर जाकर सफलता के नए अध्याय लिखेंगे या मानसिक गुलाम नेताओं से पाई बेडिय़ों से आने वाली नस्लों को जकड़े रहेंगे। देश के सर्वोच्च जनप्रतिनिधित्व मंदिर संसद और सुप्रीम कोर्ट में अगर हिंदी को बेहतर जगह मिले तो मातृभाषा में सोचने वालों की इतनी बड़ी संख्या राष्ट्र को नवनिर्माण पथ पर कहां ले जाएगी... अनुमान लगना बेशक कठिन हो पर सोच कर जरूर देखना।
इस देश के मंदिर में कहां दरार नहीं
सही सलामत ए क भी दरों दीवार नहीं है 
मत पूछो किसने लूटा इस गुलशन को
ये पूछो कौन इस लूट में हिस्सेदार नहीं है...