अभी अभी ......


Wednesday, January 26, 2011

हिंदोस्ताँ कहाँ है अब हिंदोस्तान में ।

ये रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिंदोस्ताँ कहाँ है अब हिंदोस्तान में ।
इन बादलों की आँख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में ।
तस्वीर के लिये भी कोई रूप चाहिये
ये आईना अभिशाप है सूने मकान में ।
जनतंत्र में जोंकों की कोई आस्था नहीं
क्या फ़ायदा संशोधनों से संविधान में......!!!

Tuesday, January 25, 2011

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

ाक्या जिंदगी है और भूख है सहारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

सौ करोड़ बुलबुले जाने शाने गुलिस्तां थी

उन बुलबुलों के कारण उजडा चमन हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

पर्वत ऊंचा ही सही, लेकिन पराया हो चुका है

न संतरी ही रहा वह,ना पासवां हमारा

गोदी पे खेलती हैं हजार नदियां, पर खेलती नहीं हैं

जो तड़फती ही रहती हैं, कुछ बोलती नहीं हैं,

बेरश्क हुआ गुलशन, दम तोड के हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

अब याद के आलावा गंगा में रहा क्या है

कितनों ने किया पानी पी पी के गुज़ारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

मज़हब की फ्रिक किसको और बैर कब करें हम

है भूखी नंगी जनता गर्दिश में है सितारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

यूनानो, मिश्र, रोमां जो कब के मिट चुके

उस क्यू मे हम खड़े हैं नंबर लगा हमारा

जिंदगी की गाड़ी रेंगती है धीरे धीरे

घर का चिराग अपना, दुश्मन हुआ हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा


(बरबस ही याद हो आया फिर भी मेरा देश महान)

क्या जिंदगी है और भूख है सहारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

सौ करोड़ बुलबुले जाने शाने गुलिस्तां थी

उन बुलबुलों के कारण उजडा चमन हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

पर्वत ऊंचा ही सही, लेकिन पराया हो चुका है

न संतरी ही रहा वह,ना पासवां हमारा

गोदी पे खेलती हैं हजार नदियां, पर खेलती नहीं हैं

जो तड़फती ही रहती हैं, कुछ बोलती नहीं हैं,

बेरश्क हुआ गुलशन, दम तोड के हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

अब याद के आलावा गंगा में रहा क्या है

कितनों ने किया पानी पी पी के गुज़ारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

मज़हब की फ्रिक किसको और बैर कब करें हम

है भूखी नंगी जनता गर्दिश में है सितारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

यूनानो, मिश्र, रोमां जो कब के मिट चुके

उस क्यू मे हम खड़े हैं नंबर लगा हमारा

जिंदगी की गाड़ी रेंगती है धीरे धीरे

घर का चिराग अपना, दुश्मन हुआ हमारा

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा


(बरबस ही याद हो आया फिर भी मेरा देश महान)

Monday, January 17, 2011

रातों को उठ उठकर तुमको कितनी बार पुकारा

रातों में उठ-उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
सुनकर अपनी ही प्रतिध्वनियां मन एकाकी हर पल हारा
सन्नाटों के कोलाहल में मन की वाणी खो जाती थी
विस्तृत अंतर के आंगन में यादें चंचल हो जाती थी
जब जब झपकी बोझिल पलकें मैने देखा रूप तुम्हारा
रातों को उठ उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
दूर गगन से चांद सितारे देख रहे थे मन की पीडा
आंसू के सागर में पुतली करती रही मीन सी क्रीडा
उषा की किरणों तक प्रियतम चलता रहा खेल ये सारा
रातों को उठ उठ कर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
क्षण क्षण यादें और यामिनी करती रहीं प्यार की बातें
पास पडा मन रहा सिसकता तकता रहा भोर का तारा
रातों को उठ उठ कर तुमको प्रियतम मैने कितनी बार पुकारा...

दुखांत आखिर होता क्या है...?

दुखांत यह नहीं होता कि रात की कटोरी को कोई जिदंगी के शहद से भर ना सके
और वास्तविकता के होंठ कभी शहद को चख ना सके
दुखांत यह होता है रात की कटोरी पर से चंद्रमा की कलई उतर जाये
और उस कटोरी में पडी हुई कल्पना कसैली हो जाये
दुखांत यह नहीं होता कि आपकी किस्मत से आपके साजन का नाम पता न पढा जाये
और आपके उम्र की चिट्ठी सदा रूलती रहे
  दुखांत यह होता है कि आप अपने प्रिय को अपनी उम्र की सारी चिट्ठी लिख लें
 और फिर आपके पास से अपने प्रिय का नाम पता खो जाए
दुखांत यह नहीं होता कि जिंदगी के लंबे डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहे
और आपके पैरों से सारी उम्र लहूं बहता रहे
दुखांत तो यह होता है कि आप लहु लुहान पैरों से एक जगह खड़े हों जायें
और जिसके आगे से कोई भी रास्ता आपको बुलावा ना दें.....!!!