अभी अभी ......


Tuesday, March 2, 2010

नक्सलवाद और मीडिया



    छत्तीसगढ़ के एक प्रादेशिक चैनल में काम करते हुए एक बार नक्सलियों के विचारों और कार्यशैली को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इस दौरान नक्सलियों ने तत्कालीन गृहमंत्री को जान से मारने को लिये एक धमकी भरा पत्र लिखा था जिसे सबसे पहले मीडिया मे हमारे चैनल ने दिखाया यह दिन की सबसे बड़ी ख़बर तो थी ही लेकिन इस ख़बर ने मुझे इस बात को सोचने में मज़बूर कर दिया कि आखिर इन नक्सलियों की मांगे इस तरह से क्यों हैं औऱ मीडिया ने सामाजिक पहलू से इस पूरी बिरदारी और इनकी जायज या नाजायज मांगों के बीच क्या भूमिका निभाई। नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का वो अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। इन कामरेडों का मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है; और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है। १९६७ में "नक्सलवादियों" ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। १९७१ में मजूमदार की मौत के बाद नक्सलवाद कई शाखाओं में बट गया और अलग अलग पार्टियां बना कर काम करने लगा । लेकिन जैसे जैसे नक्सलवादियों का प्रभाव समाज में बढने लगा इनके आंदोलन का मूल सिंद्धात भी बदलता गया वर्तमान में नक्सलबाद सिर्फ एक भटका हुआ आंदोलन मात्र बनकर रह गया है। कुछ अशांत दिमाग के चलते शोषण मुक्त समाज की अवधारणा वाले इस आंदोलन ने लोगों को वेबज़ह परेशान करने और आमदनी का एक ज़रिया मात्र बनाकर रख दिया है। नक्सलवाद का मूल सिंद्धात बदलकर अब सिर्फ हिंसा तक केंद्रित रह गया है। इनका संघर्ष सर्वहिताय से हटकर राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र बनकर रह गया है। ....रही बात मीडिया की तो नक्सवाद से जुड़ी हर ख़बर को लेकर उत्साहित मीडिया ने कभी भी इस बात को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई की नक्सलवादियों से जुडी जिन ख़बरों को वे लोगों के सामने ला रहे हैं उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव क्या पडेगा ? आम लोगों के बीच इन ख़बरों को लेकर किस तरह का माहौल पैदा होगा,सबसे पहले ब्रेकिंग करने की होड में हम कई बार यह भी भूल जाते हैं निरकुंश हो चुके इन उपद्रविय़ों की इस तरह की खबरों को दिखाने के चक्कर में कहीं ना कहीं हमने नक्सलियों के और समाज के बीच एक आतंक का माहौल ही पैदा किया है। छत्तीसगढ़ में कई साल तक काम करते हुए कई बार ऐसे मौके आये जब यह स्थिति आम रही। इन ख़बरों के पीछे भागते हुए हम पागलों की तरह पुलिस के दिये बयानों में यकीन करते रहे, कई बार यह बात भी गौर करने आई पुलिस द्वारा पकडे गये तमाम लोगों के पीछे यह जोड दिया जाता है कि गिरफ्तार व्यक्ति नक्सली गतिविधियों लिप्त था या फिर इसके तार नक्सलियों से जुड़े हैं जबकि कई बार तो हकीकत इससे कोसों दूर रही है यहां पर यह कहना कदाचित् अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नक्सलियों का इस्तेमाल कुछ हद तक राजनैतिक स्वार्थों के लिए भी होता रहा  है। प्रदेश के कई हिस्सों में चुनावों के दौरान इनका इस्तेमाल भी बडे पैमाने पर किया जाता रहा है। मुझे एक बात औऱ समझ में नहीं आई कि आखिर किसी साहित्य को पढना या किसी विचार को पढ़ना किस हद तक अपराध की श्रेणी में आता है, आखिर हमने भी तो स्कूल और कालेज के दौरान कई विचारधाराओं को पढ़ा और काफी हद तक उन्हें आत्मसात् भी किया है। मीडिया ने हमेशा से नक्सली गतिविधियों को ख़बरों का केंद्र बिंदु माना लेकिन इन नक्सलियों के परिवर्तित विचारधारा को जानने का प्रयास आज भी अधूरा है,राजनैतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किये जा रहे नक्सलियों की तरफ किसी का ध्यान आज तक क्यों नहीं गया यह एक अलग से शोध करने का बिंदु हो सकता है। कई बार तो हम यह सोचना भी भूल जाते हैं कि नक्सलवाद के आरोप में आज तक जितनी भी गिरफ्तारियां हुई उनके पीछे की वजह क्या है,हम यह भी भूल जाते हैं किसी जनसमुदाय का यह आंदोलन किसी राजनैतिक दबाब के चलते तो नहीं हुआ है बात इतनी सी ही है कि इन आंदोलनों के पीछे कई बार कई तरह की राजनैतिक साजिशें भी होती है।मीडिया का काम नक्सल नामक इस मुहिम को सिर्फ ख़बरों के लिए ना होकर समाज की मुख्य धारा से भटके इन क्रांतिकारियों ( अगर मूल सिंद्धातों की दुहाई ना दे तो) की निराशाकी वजह खोजना भी होना चाहिए।आखिर समाज के इस चौथे स्तंभ का कुछ जिम्मेदारियां भी तो है जिसमें समाज को समाज का असली चेहरा भी दिखाना है....

                                                 केशव आचार्य


भारत पाकिस्तान संबंध


मुंबई हमलों के बाद पाकिस्तानी विदेश सचिव सलमान बशीर के साथ हुई बातचीत को भारतीय विदेश सचिव निरूपमा राव ने इस बातचीत को विस्तृत, स्पष्ट और पारदर्शी बताया है साथ ही उन्होनें कहा कि इस समय दोनों पक्षों के बीच अच्छी केमिस्ट्रीबनी हुई है,इस बातचीतके दौरान भारत ने पाकिस्तान को तीन और दस्तावेज़ भी सौंपे हैं जिनमें से एक में मुंबई हमलों में शामिल कुछ लोगों के बारे में सबूत हैं, दूसरे में चरमपंथी इलियास कश्मीरी की तरफ़ से जारी धमकी का ब्योरा है और तीसरे में उन भगोड़ों को भारत को सौंपने की मांग की गई है जो पाकिस्तान में छिपे हुए हैं.उन्होंने कहा कि भगोड़ों से संबंधित दस्तावेज़ में कुछ और नए नाम भी शामिल हुए हैं.हर बार की तरह इस बार भी तमाम तरह की बातें औऱ औपचारिक माहौल तैयार  किया गया है,हर बार भारत-पाकिस्तान की बैठकों में दास्तावेजों के आदान-प्रदानके आलावा कुछ भी हासिल नहीं होता है,भारत अपनी तरफ से तमाम प्रयास करता है और पाकिस्तान सिवाय आश्वसानों के भारत को कुछ नहीं देता है, पाकिस्तान का जन्म सन् 1947 में भारत के विभाजन के फलस्वरूप हुआ। सन् 1947 से 1972 तक पाकिस्तान दो भागों में बंटा रहा - पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान । दिसम्बर, सन् 1971 में भारत के साथ हुई लड़ाई के फलस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना और पश्चिमी पाकिस्तान पाकिस्तान रह गया । पाकिस्तान का क्षेत्रफल कोई 8,03,940 वर्ग किलोमीटर है अरब सागर से लगी इसकी सामुद्रिक सीमा रेखा कोई 1046 किलोमीटर लम्बी है । इसकी ज़मीनी सीमारेखा कुल 6,744 किलोमीटर लम्बी है - उत्तर-पश्चिम में 2430 कि.मी. अफ़ग़ानिस्तान के साथ, दक्षिण पूर्व में 909 किमी ईरान के साथ, उत्तर-पूर्व में 512 कि.मी. चीन के साथ (गुलाम कश्मीर से लगी सीमा) तथा पूर्व में 2912 कि.मी. भारत के साथ। यहाँ की जनसंख्या तकरीबन 17, 00,00,000 है।अब पाकिस्तान की बात कर ली जाए। पाकिस्तान के भीतर के हालात चिंताजनक हैं। देश में एक कमजोर सरकार है,और इस सरकार को चलाने वाले नेता भी किसी तरह से कद्दावर नहीं कहे जा सकते हैं। पाकिस्तान ना तो सियासी हलकों में कभी स्थिरता रही है और ना ही आवाम के बीच ,पिछले कुछ समय से लगातार हो रहे हमलों ने पाकिस्तान को हिला कर रख दिया है।देश में आरजकता की स्थिति बनी हुई है। तमाम हलातों को देखकर कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की नींव कभी ठीक से जम ही नहीं पाई है। वहाँ की सेना में 80 प्रतिशत पंजाबी रहते हैं। यही हाल आईएसआई का है, जो अक्सर अमेरिका की सीआईए की तर्ज पर काम करने लगती है। बलूचिस्तान के लोग बहुत नाराज हैं तो सिंध में बेचैनी है, उत्तर-पश्चिमी सीमांत उबल रहा है।पाकिस्तान के उत्तरी-पश्चिमी सीमांत प्रांत (एनडब्ल्यूएफपी)योजना की रणनीति की आचोलना भी विश्व राजनीति में हो रही है।साथ ही पाकिस्तानी सरजमी से आतंकवाद को मिल रहे आश्रय को भी रोकने में लगातार नाकामी दिखाई देती है भले ही इसका दूसरा पहलू यह भी है कि जानबूझ कर पाकिस्तान भारत में आंतकबाद को बढ़ावा दे रहा है,लश्कर तैयबा के पाकिस्तान में होने के तमाम सबूतों के बाद भी इस आतंकवादी संगठन के खिलाफ किसी तरह की कोई कार्यवाई नहीं की गई है।पाकिस्तनी सेना और पुलिस के कई अधिकारियों के तालिबान से संबंध होने के मुद्दे भी बीच-बीच में उठते रहे हैं.।पिछले साल ही पाकिस्तान ने तालिबान के समक्ष घुटने के हालात थे जिसके बाद भारत समेत पूरे विश्व में ख़तरा पैदा हो गया था।