अभी अभी ......


Saturday, February 27, 2010

भष्ट्राचार पर लगाम पर कैसे करेगें ये काम..

भ्रष्ट्राचार को लेकर चौतरफा हो रही किरकिरी से बाद अब राज्य सरकार कड़े कदम उठाने की तैयारी कर रही है..शासन लगातार कह रही कि लंबित विभागीय जांच छह महीने में पूरी नहीं करने वाले जांच अधिकारी के खिलाफ अब जांच शुरु कर दी जायेगी...मामला स्वास्थ विभाग के भ्रष्ट्राचार का हो या आईएएस जोशी दंपत्ति के पास मिले करोड़ो रुपयों का...सरकार को चौतरफा बदनामी झेलनी पड़ रही है..भ्रष्ट्रचार का जिन्न ऐसा फैला कि सरकार को अपने अधिकारियों को काम के बदले पैसा न लेने का संकल्प दिलाना पड़ रहा है..अब सरकार इससे निपटने की तैयारी भी कर रही है..सरकार ने फरमान जारी किया है-कि विभागीय जांच को छह महीनों में पूरा करना ही होगा..नहीं करने वाले अधिकारियों पर उल्टी जांच शुरु हो जायेगी..लेकिन दूसरी तरफ सरकार के इस फरमान को विपक्षी दल नाकाफी बता रहे है..काग्रेंस ने सरकार के इस फरमाल को नाकाफी बताते हुए सरकार पर दबाब बना रही है कि यदि भाजपा भ्रष्ट्राचार को रोकने के लिए गंभीर है..तो मुख्यमंत्री को भ्रष्ट्राचार में दोषी अधिकारियो की संम्पत्ति राजसात करने का आदेश जारी करना चाहिये..तभी इसे रोका जा सकता है....प्रदेश में यदि विभागीय जांचो की स्थिति पर नजर डाले तो करीब(1-2040 से ज्यादा ऐसी जांच लंबित है..जिनके दोषी रिटायर्ड हो चुके है..2-विभिन्न विभागों में करीब 4000 से ज्यादा जांचे लंबित है..3 प्रदेश के लोक निर्माण विभाग में अकेले 800 से ज्यादा जांच लंबित..इसके अलावा लोकायुक्त और आर्थिक अपराध ब्यूरो में लंबित प्रकरण अलग है) इतनी लंबित जांचो के बाद भ्रष्ट्राचार मुक्त प्रदेश की कल्पना करना काल्पनिक ही हो सकती है..

होली है तो पर...


 पर्यावरण को सुरक्षित रखना हम सब की जिम्मेदारी होती है...जहां तक परंपराओ की बात है...तो वह समय और परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है...बढ़ते प्रदुषण को देखते हुए यह कहना सही होगा....कि अब हरियाली से होली खेलना बंद कर देना चाहिए...और यही समय की दरकार भी है... कि आने वाली पीढ़ी के लिये परंपराओ में बदलाव करें... बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोवल वार्मिंग ने लोगों की मुश्किले बढ़ा दी है..... पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हरे भरे पेड़ों को बचाने विभिन्न प्रयास किये जाते है....ऐसे में होली हमें अपने देश काल की परिवर्तित होती परिस्थितियों के अनुसार मनाना चाहिए...पर्यावरण को हो रही हानि के चलते अब सिर्फ प्रतीकात्मक होली जलाई जाना चाहिए... पहले समय मे जमीन जंगल से लदे पड़े थे...जिसके कारण होलिका दहन से प्रदुषण की समस्या से निज़ात  मिल जाती थी...लेकिन आज परिस्थिति ठीक विपरीत हो गई है...आज जमीन ज्यादा और जंगल कम हो गए है...ऐसे में परंपराओ में बदलाव जरुरी है...अब होली..... समय और पर्यावरण को देखते हुए मनाना चाहिए...हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखने की चिंता हमें करना चाहिए... हमें पुरानी परंपराओ में परिवर्तन कर होली को नए तरिके से मनाना चाहिए...अपने अहम को कम कर होली मनानी चाहिए...आज पर्यावरण की गंभीरता को देखते हुए...परंपराओ में परिवर्तन की आवश्यकता है...बुद्धजीवी वर्ग मानता है कि पर्यावरण संतुलन के लिए हमें ही पहल करनी होगी...ताकि आने वाले समय में यह समस्या और गंभीर रुप धारण ना कर सके...

Thursday, February 25, 2010

मध्य प्रदेश:बजट 2010

राज्य में भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल में निरंतर सातवां बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री राघव जी ने कुल 51 570 करोड़ रुपए का बजट पेश किया है।गुरूवार को पारित इस बजट में2010-2011 के लिए128 करोड का घाटा है ।शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी और नगरीय निकायों के लिए इस बार रकम कुछ ज्यादा खर्च की गई है.साथ प्रदेश में किसानों की गिरती माली हालात को देखते हुए इस बार के बजट में किसानों के कर्ज की ब्याज सीमा पांच फीसदी से घटाकर तीन फीसदी कर दिया है.इस फैसले से किसानों केचेहरे पर खुशी तो साफ झलक जायेगी.लेकिन पुराने कर्जों की माफी को लेकर उन्होने कोई बात नहीं की है।साथ ही किसानों के लिए बिजली,बीज और खाद्य को लेकर क्या तैयारी की जायेगी यह स्पष्च करने से चूकते नजर आये।पूरे बजट को देखने के बाद एक बात बिल्कुल साफ है कि यह बजट लोगों की जेब में भारी पडने वाला साबित हुआ है।रोटी औऱ कपड़ो को अपने कोपसे दूर रखा लेकिन मकान के लिए मूल्य वृद्धि के संकेत भी दे डाले। खाद्यान को छोडकर बाकी सभी उपभोग की चीजों पर प्रवेश कर दुगना कर दिया गयाहै।इस कर की मार से महिलाओं और बच्चों की चीजों को भी नहीं छोडा गया है।भाई जी की माने तो इस मंदी के दौर मे यह बजट राहत देने वाला है लेकिन किस दृष्टि से यह बताना शायद वे भूल गये?बजट में कुल 51507 करोड रूपये का प्रावधान किया गया है।भैया जी लगातार इस बात को कहते रहे कि यह बजट लोगों को राहत देने वाला है लेकिन भवन निर्माण की सामाग्री पर बढ़े कर के बाद मकानों के मूल्यों में आने वाली बढ़ोत्तरी के लिए क्या किया जायेगा येबताना वो भूल गये.प्रदेश माली सडको की हालात को देखते हुए सडको के लिए मौजूदा बजट में 11 फीसदी की बढोत्तरी की बात कहकर भैया जी प्रदेश की इन सड़को की नरक यात्रा से लोगों को राहत देने का शिगूफा जरूर छोड दियाहै।इस बजट में सड़को के लिए 28529 करोड दिया गया है।गांवों की बारहमासी सडको से जोडने की बातकही है।प्रदेश में कभी कभी रहने वाली बिजली व्यवस्था के लिए2214 करोड तो उन्होने दे दिये लेकिन छत्तीसगढ़ बनने के बाद प्रदेश में गहराय़े बिजली संकट से उबरनेके धराशायी प्रय़ासों के बीच इन रूपयों का क्या होगा यह तो आने वाला साल ही बता पायेगा।इस समय प्रदेश में बिजली कंपनियों और नगर निगमों के बीच चल आ रही लड़ाई का अभी तक कोई हल शासन के पास नहीं है।प्रदेश के 14 महानगरों में 03 बिजली वितरण कंपनियां है जिनके बीच बिजली के बिल को लेकर बबाल मचा हुआ है।साथ ही साथ सेवाक्षेत्र के पेशेवर व्यक्तियों को भी प्रोफेशनल टैक्स के दायरे में लाने की कवायद की गई है जिसके तहत तीन से पांच लाख की आमदानी वाले व्यक्ति पर सालाना एक हजार ,पांच लाख से आठ लाख की आमदानी पर दो हजार और आठ हजार से अधिक आमदानी पर वृत्तिकर लगाना प्रस्तावित है।प्रधानमंत्री सड़क योजना की तर्ज पर मुख्यमंत्री सड़क योजना का प्रावधान भी किया गया है जिसके तहत 200 करोड़ रूपये दिये गये है। इसके तहत साल भर दौ सो से पांच सौ की आबादी बाले गांवों को जोड़ा जायेगा इस योजना के तहत तीन सालों 19 हजार किमी सड़को का निर्माण किया जाना है। साक्षर भारत योजना के तहत् प्रदेश में14 जिलों में नए महाविद्यायलयों और9 जिलों में पॉलिटेक्निक कालेज खोलने की बात भी बजट में रखी गई है।कानून व्यवस्था को औऱअधिक दुरूस्त करने के लिए एक हजार917 करोड रूपयें का प्रावधान किया गया है.साथ ही पुलिस बल में 1500 और पदों की स्वीकृति देने की बात कहकर बेरोजगार युवकों केलिए रोजगार के द्वार भी खोल दियेहैं।प्रदेश के उद्योगों के लिए कोई खास प्रावधान इस बजट में कहीं भी नज़र नहीं आया।लोहा और स्टील पर घटाये गये इंट्री टैक्स के बाबजूद यह बजट उद्योग जगत के लिए खास नही कहा जा सकताहै। बजट में किये गये प्रावधानों के बाद भी प्रदेश के उद्योगों कोकोई फायदा पहुंचेगा ऐसा नही लगता।कुल मिलाकर इस बार बजट गरीबों को छोडकर बाकी सभी की जेबों में भारी पडने वाला है।

Wednesday, February 24, 2010

ममता की रेल या रेल में ममता


साल 2010-11 का रेल बजट ममता बैनर्जी ने संसद में पेश कर दिया है।बजट को पेश करते वक्त दीदी का कहना है उन्होने इस बात का खास ध्यान रखा है कि उनकी योजनाएं आर्थिक पैमाने पर कितना खरा उतरती है,साथ इस बजट का आम लोगों पर क्या प्रभाव पडेगा।ममता बैनर्जी ने कहा कि हमारा लक्ष्यरेलवे से अधिक से अधिक लोगों को जोडने का है इसी आधार पर रेल बजट तैयार किया गया है।पूरे देश से इस बजट के लिए 5000 से भी ज्यादा की मांगे आई थीं.इन मांगों को ध्यान में रखते हुए ममता बैनर्जी ने लोगों पर अपनी ममता खूब बरसाई। यात्री किराये मेंकोई बढोत्तरी नहीं की गई है,साथ ही माल भाडे मेंकिसी तरह की किराये बढ़ोत्तरी भी नहीं की गई है।बाबजूद इसके रेलवे का कुल राजस्व 88281 करोड रहने का अनुमान भी है।रेलवेके लिए मिशन2020 लागू करते हुए दीदी ने लोगों पर सौगातों की बौछारें कर डाली है,5 सालों में पूरे देश को रेलवे के नेटवर्क से जोडने की बात कहते हुए यात्री सुविधाओं के लिए1302 करोड रूपये भी दे डाले हैं.साथ दूर-दराज के क्षेत्रों को रेलवे से जोडने के लिए हर साल 1000 किमी नई रेल लाइन बिछाने की भी बात की गई है.सदन में पेश इस रेल बजट का मूल्याकंन अगर योजनाओं केआधार पर करें तो यह बिल्कुल सही है कियह बजट हर तरीके लोकलुभावन है लेकिन ऐसी कई जिलों को इस बार भी इस बजट में जगह नहीं मिली है जिनके लिए  कई सालों से रेल की मांग उठती रही है,मध्यप्रदेश के कई ऐसे जिलें हैं जहां पर रेलवे की सुविधाओं को लेकर कई बार आंदोलन हुए हैं बाबजूद इस बार भी वे किसी तरह की भी सुविधाओं से वंचित हैं आमूमन मंडला जैसे पिछडे जिले में एकमात्र छोटी लाइन आज भी हाशिये पर है,लंबे समयसे इसे लाइन के लिए ब्राडगेज की मांग की जाती रही है लेकिन सिवाय आश्वासनों के यहां के लोगों को अब तक कुछ भी नहीं मिल पाया है,मध्यप्रदेश में सिर्फ 4 नई ट्रेनों को दिया गया है जबकि अन्य स्थानों के लिए भी ट्रेनों की मांग की जाती रही है।बजट में रेल मंत्री ने बारबार इस बात पर जोर दिया है कि रेलवे का निजी करण नहीं किया जायेगा,लेकिन सुविधाओं की बढ़ोत्तरी और 50 स्टेशनों विश्व स्तरीय बनाने का दावा करने वाली योजनाओं के लिए उन्होनें किसी विशेष तरह की योजनाओं का जिक्र नहीं किया है,सिवाय विज्ञापनों के माध्यम से ही राजस्व की बात करती नज़र आई।पूरे बजट को ध्यान से देखा जाये तो एक बात साफ नज़र आती है कि ममता की रेलगाड़ी,स्टापेज से सीधा पश्चिम बंगाल की दिशा की तरफ ही जा रहा है.आखिस ऐसा क्यों ? 5 खेल अकादमी में से एक कोलकाता में,हाबड़ा में रवीन्द्र म्यूजियम,गीताजंलि म्यूजियम,संस्कृति एक्सप्रेस और भी ना जाने क्या क्या ? इस महत्तकांक्षी नेता बड़ी ही सूझबूझ से अपनी सारी योजनाओं को बंगालके लिए केंद्रित करके यह जताने की कोशिश की है वे अपने राज्य के प्रति कितना वफादार है। कहीं ना कहीं 2011 की तैयारी में लगी ममता के इस बजट को सिवाय बंगाल प्रिय के और कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन एक सर्वमान्य सत्य तो यह भी है पूर्व के जितने भी रेल मंत्रियों ने अपना बजट पेश किया वे भी तो सिर्फ अपने वोट बैंक को साधने का प्रयास करते रहें हैं ऐसे में यदि दीदी ने भी मौके पर चौंका जमाया तो क्या गलत किया है।
                                                        केशव आचार्य

रेल बजट 2010


भारतीय रेलवे के सफर की शुरुआत 16 अप्रैल 1853 को बॉम्बे के बोरीबंदर से ठाणो के बीच पहली यात्री गाड़ी को हरी झंडी दिखा कर की गई थी। इसके बाद भारत में रेल नेटवर्क का तेजी से विस्तार हुआ जिसका प्रारंभिक श्रेय तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को दिया जाता है। भारतीय रेलवे के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव 3 फरवरी 1925 को बना।इस दिन बाम्बे वीटी व कुर्ला के बीच पहली इलेक्ट्रिक ट्रेन चलाई गई। 1937 में वातानुकूलित बोगियों की शुरुआत हुई। स्वतंत्र भारत के लिए पहला रेल बजट 1947 में जॉन मथाई ने पेश किया था। 1984 में कोलकाता में देश की पहली मेट्रो, 1986 में रेलवे आरक्षण में कंप्यूटरीकरण और 1988 में पहली शताब्दी ट्रेन की शुरुआत हुई। यह देश की सबसे तेज ट्रेन है। ट्रेनों की जानकारी के लिए 2007 में ‘139 सेवा’ आरंभ हुई।भारतीय रेलवे दुनिया की सबसे ज्यादा रोजगार देने वाली संस्था है इसमें करीब 14 लाख कर्मचारी काम करते हैं। यह विश्व का पांचवां सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। इसकी 1,08,706 किमी लंबी पटरियों पर ग्यारह हजार रेलगाड़ियां दौड़ती हैं जिनमें रोजाना 14 मिलियन यात्री सफर करते हैं। इसके अलावा हर दिन 4000 मालगाड़ियां चलती हैं,जो लगभग 850 मिलियन टन माल की ढुलाई करती हैं।देशभर में करीब 7 हजार रेलवे स्टेशनों से यात्री चढ़ते-उतरते हैं। 24 फरवरी को ममता बैनर्जी ने अपना दूसरा रेल बजट प्रस्तुत किया है।इस रेल बजट में सालों से उपेक्षा का शिकार बने हुए मध्य-प्रदेश छत्तीसगढ़ के लिए सौगातों का पिटारा ममता बैनर्जी ने खोल दिया।प्रदेश के सबसे मशहूर पर्यटन स्थल खुजराहों के लिए एक ट्रेनकी मांग को देखते हुए दिल्ली से औऱ भोपाल से दो ट्रेनों की सौगात मिली तो नक्सलवाद से जूझ रहे दंतेबाड़ा के लिए जगदलपुर से एक ट्रेन की सौगात भी लोगों को मिली।इसके साथ मध्य प्रदेश के लिए ग्वालियर से छिदबाड़ा के लिए भी एक ट्रेन ,कटनी से भोपाल के लिए सीधी ट्रेन तो इंदौर से मुंबई के लिए दुरंतों की सौगात भी प्रदेश के लोगो को मिली है।कुल मिलाकर यह कहा जाये कि इस बार का रेल बजट मध्य प्रदेश औऱ छत्तीसगढ़ के लिए बना है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी....दीदी को हार्दिक धन्यबाद।

Friday, February 19, 2010

भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन



तीन दिवसीय भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन का आज समापन हो गया।पूरे देश से भाजपा के दिग्गज नेताओं और कार्यक्रताओं का जमावाड़ा इंदौर के ओमेक्श सिटी में बने ठाकरे ग्राम में लगा रहा...।कई नेता कई रंग ....।हर तरफ सारा माहौल जैसे इस अधिवेशन के बाद  भाजपा का काया कल्प होकर ही रहेगा...।लेकिन हकीकत तो कुछ औऱ ही निकल आई..।ऐसे समय में जब पूरे देश में सादगी की लहर चल रही हो तो बावजूद इसके भाजपा ने अपने सादगी के वायदों के इतर करोड़ों रूपयों को पानी की तरह बहा ड़ाले।पूरे शहर को भाजपा के झंड़े और बैनरों से पाट ड़ाला गया....हर चौराहे हरमोड़ पर भाजपा के नेताओं के होर्ड़िग्स नज़र आते रहे... एसी, कम्प्यूटर, नकली पेड़ पौधे, लाखों के तंबू पर खर्च का अंदाजा लगाएं तो ये करोड़ों में बैठता है...यानि सादगी की रट जो बीजेपी ने महीने भर से लगा रखी थी, वो इस अधिवेशन में ढकोसला ज्यादा नज़र आई....।बात सादगी की हो रही थी लेकिन पूरे परिसर को हाईटेक बनाया गया...पूरे क्षेत्र को वाईफाई जोन में तब्दील कर दिया गया...बड़े नेताओं के साथ उनके लैपटाप होंगे तो वाई-फाई सिस्टम का होना भी जरूरी है ना भाई..इतना ही नहीं इस अधिवेशन में बाल श्रम का कानून भी ताक पर रख दिया...अधिवेशन का तैयारी के लिए बच्चों से भी दिन-रात काम कराया गया...नवअध्यक्ष गडकरी का कहना है कि वे समाज के हर व्यक्ति का भला करना चाहते हैं...पर इस अधिवेशन में उनकी कथनी करनी साफ़ नज़र आ गई..। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का अधिवेशन...तंबू अधिवेशन के नाम से ज़्यादा लोकप्रिय रहा। यहां लगाए तंबूओं के माध्यम से बीजेपी खुद को आम आदमी की पार्टी दिखाने की कवायद करती रही। यूं तो भारतीय जनता पार्टी सख्त अनुशासन वाली पार्टी कहलाती है...लेकिन इंदौर में हकीकत कुछ और नज़र आई है... अधिवेशन के दौरान राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकारी ने सभी नेताओं को तंबू में रुकने के सख्त निर्देश दिये थे...लेकिन कई नेताओं को तंबू रास नही आए और वे पहुंच गये आलीशान होटलों में....।यानी की कहते रहो जो कहना है हम तो अपने में ही भले...।

Sunday, February 14, 2010

गुलाब और प्यार


वैलेंटाइन अब केवल प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही त्योहार नहीं ......इस दिन हर उस व्यक्ति के प्रति स्नेह जताने का चलन हो गया है.......,जिसे किसी भी रूप में प्यार किया जाता हो...... लोग अपने दोस्तों, शिक्षकों, वरिष्ठों को भी फूल देकर स्नेह और आदर प्रकट करते हैं.... यह जरूर है कि स्नेह की भावना के प्रकार को प्रकट करने के लिए फूलों का रंग अलग-अलग होते हैं। सबसे पहले बात गुलाब के रंगों की....सफेद गुलाब शांति का,पीला गुलाब -गुलाबी दोस्ती का और लाल प्यार का प्रतीक है। यही कारण है कि लाल रंग के गुलाब की कीमत इस दिन सबसे ज्यादा होती है। पीला गुलाब जहाँ 15 रुपए का मिलता है,तो लाल गुलाब 20 रुपए का। बाकी सभी रंग दस-दस रुपए में भी मिल जाते हैं। इस रंग का गुलाब सच्चे प्यार को प्रर्दिशत करता है। इसके अलावा लाल गुलाब इज्जत, पैशन और उत्साह को दर्शाता है। खूबसूरती और एलीगेंस का प्रतीक है गुलाबी गुलाब। हल्के गुलाबी रंग के गुलाब का अर्थ सहानुभूति और गहरे गुलाबी रंग के गुलाब को कृतज्ञता से जो़ड़कर देखा जाता है। इसे जादू या मोह से जो़ड़ा जाता है। यदि किसी को पहली नजर में प्यार हो गया हो, तो वह इन गुलाबों को उस व्यक्ति को भेंट कर सकता है।


इसको शुद्घता और सरलता से जो़ड़कर देखा जाता है। किसी को सफेद गुलाब देने का अर्थ उसके प्रति प्यार और इज्जत दिखाना है। गुलाब की कली जवां मोहब्बत या सरलता का प्रतीक है। पूरी तरह से खिला गुलाब आपके विकसित प्रेम का सबूत है। एक खिले गुलाब के साथ दो गुलाब की कली, आपके गुप्त प्यार की परिचायक है।फूल तो वह गुलाब का ही है, लेकिन हर फूल का रंग अलग बात कहता है। इसलिए जब भी आप अपनी भावनाओं का इजहार करना चाहें, तो बेशक गुलाब का चुनाव करें लेकिन उसके रंग पर खास ध्यान दें। सही रंग का चयन करने से आपकी अभिव्यक्ति को ज्यादा अर्थ मिल जाएँगे। किसी को गुलाब देते समय न केवल रंगों पर ध्यान देने की जरूरत है, बल्कि गुलाबों की संख्या और गुलाब की परिपक्वता भी आपकी भावनाओं का इजहार करती है। दो गुलाबों का अर्थ, दो होकर भी एक से है। परंपरागत रूप से दो गुलाबों को किसी भी सगाई या शादी में दिया जाता है।

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Thursday, February 11, 2010

टेलीविज़न का इतिहास

21 वीं सदी की शुरूआत में बुद्धु बक्से के नाम से प्रचारित होते आये टेलीविज़न ने इस दशक की शुरूआत में भारतीयों पर अमिट छाप छोड़ी है। 21 वी सदी के पहले दशक में एक तरफ जहां जनमानस पर धारावाहिकों ने अमिट छाप छोड़ी तो दूसरी तरफ रिएलिटी शोज़ ने आम आदमी को सपने में जीने को मज़बूर कर दिया। एक तरफ बच्चों को 24 घंटों का कार्टून धमाल मिला तो दूसरी तरफ बुज़ुर्गों के एकाकीपन में आध्यात्मिक चैनल उनके साथी बन बैठे। वर्ष 2000 टीवी इतिहास के लिए एक नया मोड़ लेकर आया इस टीवी पर लोगों के सपनों को एक नया आयाम मिला। कौन बनेगा करोड़ पति के नाम से आये धारावाहिक ने लोगों के ज़नून को सबके सामने लाकर रख दिया। इस साल बड़े पर्दे के शहंशाह यानि अमिताभ बच्चन ने छोड़े पर्दे की ओर रूख़ किया और KBC ने सफलता के नये आयाम रच ड़ाले। स्टार प्लस पर आने वाले इस कार्यक्रम ने चैनल को टीआरपी की लाइन में अन्य चैनलों से सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया। और इस दौर में टेलीविज़न पर छिड़ गई क्विज़ शो की एक जंग। क्विज़ शो के इस रेस एक बार फिर अपना ट्रेक चेंज़ किया 2001 में इस साल के शुरूआत में ही अभिताभ बच्चन की देखादेखी अन्य फिल्मी सितारों ने भी छोटे पर्दे की ओर रूख किया। गोविंदा ने एक तरफ जीता छप्पड़ फाड़ की एकरिंग का ज़िम्मा संभाला तो दूसरी तरफ एकता कपूर ने टीवी पर सास-बहु का इमोशनली ट्रेंड़ शुरू किया। एकता कपूर के धारावाधिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी, ‘कहानी घर घर की’ और ‘कसौटी जिंदगी’ ने कुछ ही समय में लोगों के दिलों पर कब्ज़ा कर लिया। पार्वती औऱ तुलसी के किरदारों में स्मृति ईरानी भारतीय परिवारों में स्त्रियों के लिए के लिए आर्दश बन गये। इन धारावाहिकों से स्मृति ईरानी और साक्षी तंवर की शोहरत आसमान छूने लगी। इन धारावाहिकों में भारतीय परंपराओं के सम्मोहन, रिश्तों की मिठास से लेकर फैशन के टिप्स देने वाले परिधान और घरों का इंटीरियर तक सबकुछ था। 2001 से एकता कपूर का जलवा बरकार रहा। इस दौरान एक तरफ एकता के शोज़ का जलवा कायम था। तो दूसरी तरफ 2002 के शुरूआत के साथ ही युवाओं के लिए भी कई कार्यक्रम बनने लगे। संजीवनी, पारिवारिक शो कुमकुम काफ़ी सफ़ल रहे।. तो बच्चों के लिए बूम बूम जैसे कार्यक्रम ने भी सफलता ने भी सफलता का स्वाद चखा। जय माता दी से हेमामालनी ने…..तो मेट्रोमोनी शो ‘कहीं ना कहीं कोई है’ से धक धक गर्ल माधुरी दीक्षित ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। स्लीवलेस ब्लाउज के साथ ही ड़िजायनर साड़ियों का एक नया दौर मंदिरा बेदी ने छोटे पर्दे पर उतार दिया। ट्रांसपेरेट साड़ियां पहने जब मंदिरा सेट मेक्स पर एक्सट्रा इनिंग में खिलाड़ियों के साथ डिक्सन करती नज़र आई। तो जो लोग क्रिकेट नहीं देखते थे वे भी इस बुद्धु बक्से के आगे क्रिकेट पर चर्चा करते नज़र आने लगे। तो इसी साल गोल चश्मा लगाये सोनी पर जस्सी ने लोगों के घरों पर कब्जा कर लिया। इस धारावाहिक को जब़रदस्त सफलता मिली। जस्सी जैसी कोई नहीं को मिली ज़बरदस्त सफलता ने स्टार पर दिल से भोली लेकिन कम आर्कषक दिखने वाली लड़की की कहानी देखो मगर प्यार से शुरू किया। 2004 के दौरान टीवी पर इन कार्यक्रमों का जोर चलता रहा और 2005 में टीवी इतिहास में एक नया मोड़ आया और छोटे पर्दें पर शुरू हुआ रियलिटी शो का एक नया दौर। केबीसी की जब़रदस्त सफलता के बाद स्टार प्लस ने केबीसी 2 की शुरूआत की और दर्शकों का ज़बरदस्त रिस्पोंस पाया। हालांकि क्विज़ औऱ म्यूज़िकल शो शुरू से ही लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे थे। इसी बीच कुछ नया दिखाने और दर्शकों को अपनी तरफ खींचने के लिए स्टार वन पर एक नये तरह का शो ‘द ग्रेट इंड़ियन लाफ्टर शो’ आया सीरियस टाइप के शोज़ से ऊब रहे इस शो दर्शकों को हंसने का एक नया कारण दिया। 2007 तक के आते-आते टीवी पर रियलिटी शो की भरमार तमाम चैनलों पर थी।..म्यूज़िकल शोज़ के चलते छोटे शहरों से प्रतिभाओं को अपनी पहचान बनाने की मौका मिला। तो इन शोज़ लोगों ने अपनी सेलिब्रिटीस को लड़ते झगड़ते भी देखा। कुल मिलाकर यह साल ऱियलिटी शो के निर्णायकों के झगडे का गबाह बनकर रह गया। एक तरफ क्योकि…से शिखर पर पहुंचने वाली तुसली कहीं गायब हो गई तो दूसरी तरफ एक बार बड़े पर्दे के चेहरों ने छोटे पर्दे पर दस्तक देनी शुरू कर दी। शाखरूख खान ने केबीसी3 के साथ छोटे पर्दे पर अपनी शुरूआत की। 2007 से 2009 के बीच इस बुद्धु बक्से के लिए कई बड़े मोड़ आये। टीवी पर गांव की पृष्ठ भूमि को लेकर एक नया युद्ध छिड़ा हुआ है। तमाम चैनल एक फिर गांव की तरफ लौट रहे है। इसी का परिणाम है कि लगभग सारे चैनल पर इस तरह के सीरियलों की बाढ़ आई हुई है।.

Monday, February 8, 2010

प्रथम भारतीय नवजागरणकाल में वेद धर्म और विचारधाराएं


प्रथम भारतीय नवजागरणकाल में वेद धर्म और विचारधाराएंप्राचीन भारतीय सभ्यता औऱ संस्कृतियों के विकास का इतिहास, धर्मों के विकास औऱ उनके स्वरूपों के प्रत्यक्ष में आने की एक गहरी परंपरा का ही इतिहास है। प्रत्येक युग या आने वाले समय में धार्मिक बदलाव आये जिनका समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ता गया। प्रत्येक नये धर्म के साथ पुराने धर्मों की छाप वैसे ही पड़ती गई जैसे नये विकसित संस्कृति पर पिछली संस्कृति की छाप पड़ती है। कभी-कभी तो इन नये धर्मों का आभास तक नहीं होता। औऱ कभी धर्म के विभिन्न रूपों में जमकर तथा खुला संघर्ष होता है। भारतवर्ष भी इस खुले धार्मिक संघर्ष से अछूता नहीं रहा है। 3500 वर्षों पहले तक भारत भी ऐसे ही खुले संघर्ष औऱ अंधविश्वासों में ड़ूबा रहा है। ऐसी व्यवस्था के विरूद्ध होने वाले परिवर्तन की ही प्रथम भारतीय पुर्नजागरण की संज्ञा प्रदान की हालांकि इस काल से पूर्व भारत वैदिक युग और पुरोहित सभ्यता के काल से भी गुजरा। वैदिक सभ्यता के उदय से पहले भी भारत में एक शक्तिशाली व्यवस्था एवं सभ्यता विद्यमान थी जो इस युग के लिए भी आदर्श है। इस युग के धर्मों में ना कोई राजा था ना कोई प्रजा, ना कोई दास ना कोई स्वामी। लेकिन समय के साथ ही संपत्ति पर अधिकार के व्यक्तिगत स्वरूप ने एवं अनार्यों के आगमन के साथ ही यह उज्जवल सभ्यता धूमिल होती गई, एवं 4500 वर्ष पहले महाभारत काल के साथ ही यह सभ्यता भी समाप्त हो गई। असुर संस्कृति औऱ सामाजिक पद्धति ने इसे मिटाकर इसकी जगह धर्म और अनुष्ठान के पाखंड की स्थापना आज से लगभग 4500-5000 वर्ष पहले “पुरोहित युग” के रूप में कर दी जिसे आज हम “ब्राह्मण युग” के रूप में जानते हैं। जिसका समय 2000 या इससे कुछ अधिक समय तक रहा। यह भारतीय समाज का सबसे उत्पीड़क अंधकार युग था। लगभग 1500 साल चले इस ब्राह्मण युग मे असहनीय पीड़ा, चारों ओर अंधकार, हाहाकार, यज्ञों की बलिवेदी से निकलते दुर्गंध युक्त ताप से चारों तरफ व्याकुलता छाई थी। लेकिन जिस तरह बुरे सपनें काली रातों काली रातों के बीत जाने पर समाप्त हो जाते हैं केवल उनकी स्मृतियां शेष रह जाती है। वैसे ही यह युग भी बीत गया। औऱ इस समय कुछ ऐसी परिस्थियां बनी जिन्होंने नवजागरण काल के लिए एक मंच तैयार किया। हालांकि इस मुक्ति संघर्ष में भारत को 1500 साल लग गये। यही हमारा प्रथम नवजागरण काल था। कितने ही कठिन संघर्षों के बाद हमने वो काली और भयावह रात पार की। लेकिन यह गर्वयोग्य बात है कि इन 1500 शताब्दीयों तक भारतीय समाज जीवत रहा और अगली 15 शताब्दियों तक ही अपने पुर्नजन्म के लिए संघर्ष करते हुए समस्त विश्व का मार्गदर्शन करता रहा। इस प्रथम भारतीय नवजागरण काल में हमारे वेदों धर्मों और विचारधाराओं ने अतुलनीय योगदान दिया।

उपनिषद काल

जब कोई अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन अपना स्वरूप विस्मृत कर विकृत स्वरूप में प्रकट होती है तो सामाजिक विकास के मार्ग अवरूद्ध होने लगते हैं। पुरोहित या ब्राह्णणयुग एक ऐसी ही विकृत सामाजिक व्यवस्था थी। यद्यपि यह 15 सौ वर्षों तक चला पर अंत में इसे जाना पड़ा। इस युग के विरूद्ध कार्य करने वाली परिस्थियां आज से 35 शताब्दियां पहले ही तैयार होने लगी थी। इस कार्य को करने वाले लोग आड़बंर मुक्त थे। इनका जीवन आकर्षक सीधा सादा, सरल तेजमय तो था ही उनकी विचारशैली उत्तेजक एवं मस्तिष्क के द्वार खोलने वाली भी थी। ये लोग भोग विलास औऱ राजमहलों से दूर तपोंवनों में बैठ कर सर्वसाधारण से बात करते थे, सबसे पहले इन्होनें ही गौ को माता कहा औऱ अवधनीय माना। इन्होंने मांस भक्षण बंद कराकर शाकाहार को प्रोत्साहन दिया। 3500 वर्षों तक अंधकार में ड़ूबे लोगों को सही रास्ता दिखाने वाले ये लोग थे। उपनिषदों के महर्षि। ये जन विचारक लोग ममत्व जाति की पीड़ाओं को स्वंय झेल कर उनके लिए नये मार्ग प्रशस्त करते थे। अपने संबंध मे इन्होंने घोषणा की थी-

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुन भर्वम्

कामये दुखतप्तानां प्राणि नामर्तिनशम्

इन महापुरूषों के विचार उपनिषदों में अंकित हैं। इन महामानवों ने ये ग्रंथ जनता के समीप बैठकर, उनके आवेगों को ध्यान में रखकर लिखा इसलिए अर्थात् “ समीप बैठकर लिखी” कहा जाता है।

उपनिषद् के ऋर्षि केवल ब्राह्णण ही नहीं थे बल्कि अब्राह्मण भी थे, अल्पब्रक इनमें प्रमुख हैं। उपनिषदों के ऋषिर्यों ने पुरोहितवाद के आड़म्बर पर गहरा प्रहार करते हुए शताब्दियों से दबी, गूगीं, बहरी जनता के लिए धर्म के वैकल्पिक रूप प्रस्तुत कियें औऱ प्रगति के द्वार खोल दिये। इन्होंने शारीरिक श्रेष्ठता पर प्रहार करते हुए ज्ञान को श्रेष्ठता पर दिया। क्योंकि ज्ञान पर किसी जाति विशेष का अधिकार तो होता नहीं है। इतना ही नहीं ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए इन्होंने स्त्री जाति को अनैतिक सामाजिक बंधनों से छुटकारा दिला दिया, इससे पहले पुरोहित युग तक नारी का स्वरूप दासी का था। मार्गों और मैत्रेयी इस काल की प्रमुख उपलब्धि थी जिनके ब्रह्म ज्ञान को हम नकार नहीं सकते हैं। इस युग तक चली आ रही कुंठित मानव मस्तिष्क में नई चेतना का संचार किया। उपनिषदकारों ने मानव जीवन के प्रत्येक मूल प्रश्न पर मौलिकता से विचार मंथन किया। यह युग लगभग हजार सालों तक चला जिसमें याज्ञवल्लव, उद्दालय, गार्गी, यैत्रेमी, कणाद, गौतम, कपिल, बादरायण आदि नास्तिक ऋषियों ने समाज को आड़म्बर से निज़ात दिलाई और नवजागरण काल के लिए आधार स्थल तैयार किया।

गौतम बुद्ध का जनान्दोलन

उपनिषदों का ज्ञान मानवों की मासिक संकीर्णता को दूर कर रहा था, परंतु अति सीमित क्षेत्र तक ही अर्थात् यह केवल शिक्षित वर्ग ही था। लेकिन इस कार्य को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया एक ऐतिहासिक पुरूष गौतम बुद्ध ने। इन्होंने मानस पटल पर संकीर्णता मिटाने को कार्य के साथ ही समस्त विश्व में ज्ञान की ज्योत जलाई। इन्होनें ज्ञान की इस, लहर से जनमानस को उस समय भिगोया जब देश दो विभिन्न संस्कृतियों औऱ व्यवस्थाओं के संक्रमण काल से गुजर रहा था। एक तरफ जहां उपनिषदकारों का प्रभाव क्षीण हो रहा था औऱ दूसरी तरफ भारतीय जनता अंधकार में ड़ूबी थी,गौतम बुद्ध ने ज्ञान को संयत और स्पष्ट रूप से प्रकट किया, इनके विचारों ने आने वाले 500 सालों तक जनमानस को प्रभावित करते रहे।

ईसा पूर्व 500 वर्ष पहले गौतम बुद्ध शाक्य गणतंत्र के राजा शुद्धोधन के यहां उत्पन्न हुए। बचपन से ही किसी दुखित प्राणी को देखकर दुखी हो जाते औऱ उस दुख से खुद को ग्रस्त अनुभव करते। किसी दुख के बचाव का मध्यम मार्ग निकालने की राह पर सिद्धार्थ से बोधिसत्व और गौतम बुद्ध बन गये।

गौतम बुद्ध किसी तपोवन में सन्सासी बनकर बल्कि जीवन भर घूम घूमकर लोगों के दुखों का निवारण करते रहे। “चरैवेति चरैवेति” का नारा देकर अपने समस्त अनुयायियों को संपूर्ण विश्व में भ्रमण करते रहने की प्रेरणा दी। इन्होंने अंहिसा और शांति को मानवता जीनव की सबसे बड़ी पूंजी माना। गौतम बुद्ध ने उपनिषदकारों औऱ अपने विचारों में कोई अंतर नहीं मानते थे। परंतु उपनिषदकारों के विचारों और ज्ञान में पुरोहित वर्ग और उनके स्वार्थों पर गहरी चोट नहीं की। जबकि बुद्ध के विचारों ने जनमानस के हृदय स्थल पर जाकर नई आशाओं का संचार किया। इनके विचारों को एक स्पष्ट जनाधार मिला। इनके उद्देशों के कारण ही पशु हिंसा समाप्त प्राय: हो गई और खेती के रूप में नई व्यवस्था का प्रचलन हुआ इनके द्वारा दिये गये उपदेशों के कारण ही अगले 4-5 सौ सालों में काबिला और दास प्रथा का अंत हो गया। पूरे भारतीय इतिहास में गौतम बुद्ध एकमात्र ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति थे जिनके विचारों ने सदियों तक भारतीय समाज के साथ साथ संपूर्ण विश्व को सघन रूप तक प्रभावित किया।

भारतीय नवजागरण में उपनिषदों के पश्चात् सबसे महत्तवपूर्ण स्थान बौद्धों के जनांदोलन का रहा। उन्होनें हजारों वर्षों से चली आ रही रूढ़ियों और अंधविश्वासों में ड़ूबी भारतीय जनता में नई स्फूर्ति भरी उनमें आत्मबोध जाग्रत कर नई परिस्थियों का सामना करने के योग्य बनाया

जैन धर्म का योगदान

गौतम बुद्ध की तरह ही राज परिवार में जन्में महावीर स्वामी भी उन्ही की तरह कष्टों से मुक्ति दिलाने को ललायित थे। इन्होनें बड़ी सत्य निष्ठा और प्रबलता के साथ यज्ञों में हिंसा का प्रतिरोध किया। लेकिन यह बौद्ध धर्म की तरह एक व्यापक जनादोंलन नहीं बन सका और प्रारंभ से ही एक वर्ग विशेष तक सीमित रहा। फिर भी दार्शनिकता के क्षेत्र में उनकी प्रगतिशील भूमिका का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उसका स्यादवाद दर्शन पुरानी निष्ठाओं और अंधविश्वासों पर कड़ा प्रहार करता है और सोच के विपरीत आचरण को भी धर्म मानता है। शताब्दियों तक जिन यज्ञानुष्ठानों को धर्म का एक हिस्सा मान लिया गया था, उसके विरूद्ध जैन धर्म ने संघर्ष कर सामाजिक चेतना को जाग्रत किया।

चार्वाक की भूमिका

भारत के प्रथम पुर्नजागरण काल में चार्वाक की भी महत्तवपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने वेद ऋषियों के विचारों का सर्मथन करते हुए आडंबर पूर्ण कर्म कांडों यज्ञानुष्ठानों की कड़ी आलोचना करते हुए इसके समांतर ज्ञान की श्रेष्ठता स्थापित की। इन्होनें पशु बलि का घोर विरोध किया एक ओर उपनिषदकारों, बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ने उपनिषत्कारों की शैली में ही वेदों की मान्यता का आदर किया वहीं दूसरी ओर चार्वाक ने दार्शनिक प्रतिक्रिया बौद्धिक संघर्ष चलाया। इनके दर्शन की पुराणों में व्यापक चर्चा की है।

पुराणों के अनुसार महाभारत की समाप्ति के बाद जब कलियुग का प्रवेश हुआ तभी चार्वाक का भी प्रवेश हुआ। इन्होंने वेदों की निंदा और वैदिक धर्म का खंडन करते हुए ईश्वरवाद, कर्मकांड़, आस्तिकवाद तथा आड़म्बरों का घोर विरोध किया चार्वाक ने सृष्टि से लेकर लौलिक दिनचर्या तक सभी कर्मों पर गंभीरता से विचार किया है।

विभिन्न दार्शनिक मान्याताएं और उनका योगदान

कई शताब्दियों तक भारतीय समाज ने अपने मस्तिष्क से काम लेना बंद कर दिया था एवं वेदो औऱ पुरोहित वर्ग के आदर्शों के रूप में दासता का अंधेरा अपने चारों और पाल लिया था, उसी समाज को विभिन्न बौद्धिक स्तरों के आधार पर छोड़कर स्वतंत्र चिंतन की शुरूआत की गई। इसी स्वतंत्र चिंतन की बदौलत स्वर्ग प्राप्ति और मोक्ष के लिए यज्ञों के माध्यमों से की जा रही है हिंसा पर रोक लगाना संभव हो पाया।

मक्खली या मस्करी पुत्र गोसाल कम्बली पकुदकचायन, निगण्ठनाथ आदि दार्शनिकों ने स्वर्ग, मोक्ष, पुर्नजन्म, अग्रिम जन्म, पुरोहित औऱ भी नाना प्रकार की कुरीतियों के लिए भारतीयों के मन में नवजागरण की लहर पैदा की। इनका मानना था स्वर्ग और मोक्ष की चिंता में इस जीवन में इस जीवन को दुखों में ड़ुबोकर रखना व्यर्थ है। अजितकेश कंबली तो मानव जीवन की निकृष्ठतम वस्तु को भी रूचिकर सिद्ध करते हुए मानव केशों से बने कंबल पहना और ओढा करते थे।

इन सभी दार्शनिकों ने पुरोहितवाद के निविड़ अंधकार के विवरण-आन्दोलन को आगे बढ़ाया औऱ समाज के बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से विकास की नई दिशा प्रदान की।

यह भारतीय नवजागरण का वह समय था जब जीनव के सारे पुरातन समीकरण बदल गये थे। नई बौद्धिक औऱ सांस्कृतिक दशाएं उत्पन्न हो गई थी। इस समय के बाद लगभग 150 सालों से आ रही कुरीतियों का किला ध्वस्त हो गया, इसके विरूद्ध पूरे भारत वर्ष में हमारे दार्शनिक, चिन्तकों जन-आंदोलनकारियों ने नये भारतीय समाज के लिए आवश्यक परिस्थियां तैयार की। इसी नवजागरण के फलस्वरूप ही भारत ने एक नये राष्ट्र के रूप में जन्म लिया औऱ एक राजनैतिक इकाई के रूप में उभरा।

प्रदेश में महिलाओं की स्थिति

प्रदेश में महिलाओं की स्थिति
मध्य प्रदेश में इन दिनों प्रशासन प्रदेश में महिलाओं सुदृढ़ स्थिति को लेकर फुले नहीं समा रहा है.राज्य सरकार का मानना है कि प्रदेश में महिलाओं की दयनीय हालत में सुधार हुआ है....विगत विधान सभा से लेकर पंचायत चुनावों तक महिलाए सशक्त रूप से सामने आई है,लेकिन इस महिमा मंड़न के बाद भी प्रदेश में महिलाओं के साथ क्या-क्या हो रहा है यह बात किसी से छुपी नहीं है....प्रदेश में महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए ना कितने तरह से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन बावजूद इसके हालात अब भी चिंता जनक ही हैं...

राजनीतिक स्थिति और हकीकत
शासन का दावा है कि प्रदेश में महिलाओं के मौजूदा हालातों में सुधार हुआ है महिलाओं को पुरूषों के बराबर का स्थान मिला है पर कितना....प्रशासन की कहना है कि इस समय प्रदेश में...एक लाख अस्सी हजार महिला पंच हैं..ग्यारह हजार पांच सौ बीस महिला सरपंच हैं...तीन हजार चार सौ महिला जनपद सदस्य हैं...चार सौ पंद्रह महिला जिला पंचायत सदस्य हैं...पांच सौ छप्पन जनपदों और पच्चीस जिला पंचायतों में महिला अध्यक्ष हैं...एक हजार सात सौ अस्सी महिला पार्षद हैं...पन्चानवे नगर पंचायत में महिला अध्यक्ष हैं...बत्तीस नगर पालिका में महिला अध्यक्ष हैं...आठ नगर निगमों में महिला महापौर हैं.....ये आंकड़े हैं राज्य भर में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के, यानी की प्रदेश की कुल 6 करोड़ की आबादी मे महिलाओं की जनसंख्या 2.5 करोड के आसपास हैं इस पूरी जनसंख्या में 3 करोड़ से भी ज्यादा पुरूष हैं...ऐसे में सिर्फ उंगलियों की संख्या में गिनी जाने वाली महिलाओं की इस उपलब्धता पर किसे गर्व करना चाहिए...6 करोड़ आबादी वाले इस प्रदेश में महिलाएं आज भी हाशिये पर हैं...इनके पास आज भी इनकी आंखों में आंसुओं के आलवा कुछ भी नहीं है... शिवराज द्वारा घोषित महिला नीति का अभी तक क्रियान्वयन नहीं हुआ।प्रदेश सरकार भले ही यह कहकर हल्ला मचा रही है कि राज्य में महिलाओं को पुरूषों के बराबर हक दिया गया है तो खुद शिवराज की सरकार में महिलाओं की कितनी पहुंच है इसका जीता जागता प्रमाण भी है कि...230 सदस्यों वाली विधानसभा में कुल 25 महिलाएं विधायक हैं,सिर्फ दो महिलाएं ही मंत्रिमंडल में जगह पा सकीं एक हैं कैबिनेट मंत्री अर्चना चिटनीस हैं तो दूसरी स्वतंत्र प्रभार राज्य मंत्री रंजना बघेल हैं।शिवराज सिंह चौहान के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद होने वाले पहले विस्तार को लेकर महिला विधायक अपनी बारी का इंतजार कर रहीं थीं मगर ऐसा नहीं हुआ।
अत्याचार और महिलाएं
-यानी कहा जाये कि शासन के आकंड़े सिर्फ दिखावे के लिए हैं तो कोई ज्यादती नहीं होगी...ये बात रही महिलाओं की राजनीतिक पोजिशन की... लेकिन इन सबसे दूर समाज की एक और हकीकत है जहां आज भी महिलाओं पर अत्याचार बदस्तूर जारी हैं...ख़ुद को घुटन से आजादी दिलाने में लगी महिलाओं ने जब भी अपने लिए आवाज उठाई हैं उन्हें इस पुरूष प्रधान समाज में अगर कुछ मिला है तो सिर्फ यातना और कुछ नहीं...हालातो को चाहे जैसे दिखाया जाये लेकिन राज्य भर में महिला उत्पीड़न के मामले बढ़ते जा रहे हैं...प्रदेश सरकार भले अपने 5 सालों के आंकड़ों पर गर्व से सीना ठोंक रही हो लेकिन पिछले एक साल के आंकड़े ही इस पूरे महिमा मंड़न का मिथक तोड़ रहैं हैं...आज भी महिलाएं समाज के ठेकेदारों के लिए सिर्फ अपने रौब को जमाने का माध्यम मात्र हैं..इसकी जीती जागती मिशाल है ये आंकड़े....देश में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में तीस प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। इसमें मध्यप्रदेश पहले नंबर है।....भाजपा की प्रदेश में सरकार बनने से लेकर अब 13 हजार से भी ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना घटी हैं।...धार जिले में दो महिलाओं को बुरी तरह पीटा गया और उनके मुंह पर कालिख पोतकर उन्हें निर्वस्त्र किया गया....प्रदेश में आदिवासी, दलित एवं नाबालिक युवतियां बड़ी संख्या में बलात्कार की शिकार हुई हैं।...शिवपुरी जिले के पिछोर थाना एक मां अपनी सामाजिक प्रताड़ना से तंग आकर तीन बेटियों के साथ आत्महत्या कर लेती हैं...सिर्फ इतना ही नही ये आंकड़े तो उन जगहों के हैं जहां पर महिलाओं का शोषण कोई नयी बात नहीं हैं....लेकिन एक और पहलु है जहां पर महिलाएं की सुरक्षा खुद कई सवाल खड़े करती है....जी हां मैं बातकर रहा हूं पुलिस महकमे की....प्रदेश में ऐसे कई घटनाएं हैं जिन्होनें कानून को भी दीगर शोषणकर्ताओं के साथ लाकर खड़ा कर दिया है...कानून के ठेकेदार आज खुद ही महिलाओं के दलाल बन गये हैं....प्रदेश में ऐसे कई मामले हैं जिनसे वर्दी भी दागदार हुई है....बालाघाट जेल में 15 फरवरी 05 की रात 9 बजे एक जेल अधिकारी ने महिला वार्ड खुलवाकर महिला बन्दियों के साथ बलात्कार किया ...आमला थाने में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया..नीमच में 20 अक्टूबर 07 को 15 वर्षीय बालिका के साथ 5 युवकों ने बलात्कार किया और विरोध करने पर भरी पंचायत में बालिका के परिवार को अपमान सहना पड़ा…इन आकंड़ों पर तो कोई भी कह सकता है कि पुरानी बात है लेकिन मैं आपको बता कि जनवरी 2009 से जनवरी 2010 तक आंकडे किसी की भी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त होगें इस एक साल के महिलाओं पर हुए आत्याचारों पर नज़र ड़ाली जाये तो इस समय सीमा में पूरे प्रदेश के 17 जिलों में महिलाओं केसाथ बलात्कार के 755,हत्या के 110,हत्या के प्रयास के 147, दहेज से मौत के 248 और अपहरण के 220 मामले सामने आये हैं । इनमें बलात्कार के सबसे ज्यादा मामलों में बैतूल 130 खंडवा 70 राजगढ़ में 67 और छ्त्तरपुर में 64 मामले दर्ज किये गये हैं ...ये तो वे आकंड़े हैं जो पुलिस रिकार्ड़ में दर्ज हैं...इनके आलावा ना जाने और ऐसे कितने अमानवीय कृत्य हैं जिनकी सच्चाई सामाजिक बंधनों और ड़र की वज़ह से सामने नहीं आ पाये।
प्रशासन की योजनाएं और महिलाएं

यह अलग बात है कि शासन हर स्तर पर महिलाओं के लिए शासकीय योजनाओं का ठीठोंरा तो पीटती रहती है....महिलाओं के हितों में काम करने के लिए शासन के कई विभाग बना दिये गये हैं..कई योजनाएं क्रियान्वित की गई लेकिन हालात आज भी हैं....समाचार पत्रों और बड़े-बड़े आयोजनों के माधयम से मधयप्रदेश में महिला सशक्तिकरण की मुनादी भले ही की जा रही है। पूर्व से संचालित परिवार परामर्श केन्द्रों की तरफ शासन का धयान शायद हट सा गया है इनके कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दिया जा रहा है। यह परिवार परामर्श केन्द्र बंद होने की स्थिति में आज खड़े हैं। यही हाल महिला परामर्श केन्द्रों का भी है वहाँ भी शिशु-बालिका भ्रूण हत्या को प्रदेश सरकार ने कठोर अपराधों की श्रेणी में रखा है। लेकिन पिछले कई वर्षों में एक भी प्रकरण इसके अंतर्गत पंजीबध्द नहीं किया। इसी प्रकार भ्रूण हत्या की जानकारी देने वाले व्यक्ति की 10 हजार रुपये का इनाम देने की घोषणा इस सरकार ने की थी, किंतु पिछले वर्षों से किसी को भी यह ईनाम नहीं बांटा गया। इस बात बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत के 14 जिलों में से मधयप्रदेश के भिण्ड और मुरैना में सर्वाधिक भ्रूण हत्याऐं होती हैं। महिलाओं के लिये संचालित अनेक योजनाएँ भ्रष्टाचार से अछुती नहीं है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका पर्यवेक्षक, आदि की नियुक्ति में जमकर भ्रष्टाचार हुआ है। साइकिल घोटाला, जननी सुरक्षा योजना, पोषण आहार, गरीबी रेखा, राशन कार्ड में धांधाली, पेंशन, नर्सिंग, कन्यादान योजनान्तर्गत दहेज खरीदी, लाड़ली लक्ष्मी योजना, अन्न प्राशन योजना, गोद भराई आदि योजनाएँ मात्र विज्ञापन और कागजों पर ही फलफूल रही हैं।मुख्य मंत्री कन्यादान योजना के अंतर्गत शहडोल जिलें में जिस तरह से महिलाओं के साथ कोमोर्य परीक्षण का मामला हमारे सामने है। बावजूद इसके शासन का यह दावा कि प्रदेश में महिलाएं सुरक्षित ,समृद्ध और सशक्त हैं किसी आलिफ लैला की कहानियों से कम दिलचस्प नहीं है....





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Saturday, February 6, 2010

विलुप्त की कगार पर भाषाएं

 
विलुप्त की कगार पर भाषाएं

आज सुबह जैसे ही अख़बार उठाया एक छोटी सी खब़र ने सोचने में मज़बूर कर दिया...खब़र थी अंडमान की एक प्राचीन भाषा को बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ का निधन। 85 वर्षीय बोआ के देहांत के बाद अब इस भाषा को बोलने वाला कोई नहीं बचा है।बोआ बो भाषा की जानकार थी और ये भाषा दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक थी। भाषाओं का संकट विकास की वेदी पर चढ़ती बलि ही है। भाषा विज्ञानियों कि माने तो हर पखवाड़े एक भाषा लुप्त हो रही है। आज स्थिति यह है कि संसार में प्रचलित करीब 6000 भाषाओं में से एक-चौथाई को बोलने वाले सिर्फ एक ही हजार लोग बचे हैं। इनमें से भी सिर्फ 600 भाषाएं ही फिलहाल सुरक्षित होने की श्रेणी में आती हैं। किसी नई भाषा के जन्मने का कोई उदाहरण भी हमारे सामने नहीं है दुनिया भर में इस वक्त चीनी, अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। दो अरब 40 करोड़ लोग ये भाषाएं बोलते हैं।
विकास के साथ भाषा स्वरूप...
 भाषा शिक्षा और अभिव्यक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सरल माध्यम है। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार आधुनिक भारत में प्रचलित भाषाओं को 5 विभिन्न भाषा परिवारों में बांटा गया है...जिनके अंतर्गत 1652 से भी अधिक मातृ भाषाएं हैं...। वर्ष 1991 की जनगणना से मातृभाषाओं के 10,400 छोटे-छोटे विवरणों का पता चला था और इन्हें 1576 मातृभाषाओं के रूप में युक्‍तिसंगत बनाया गया। भारत में अधिकांश लोगों द्वारा इन्‍डो-आर्यन भाघाएं बोली जाती है। तत्‍पश्‍चात घटते क्रम में द्रविड, आस्ट्रो एशियाई और चीनी-तिब्बती (तिब्बती-वर्मा) भाषाओं का स्‍थान आता है। देश असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, कन्नड, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिन्धी, तमिल, तेलुगू और उर्दू को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। इनमें से संस्‍कृत तथा तमिल को प्राचीन भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर की भाषाओं में एक तिहाई सब सहारा अफ़्रीकी क्षेत्र में बोली जाती हैं. आशंका है कि अगली सदी के दौरान इनमें से दस फ़ीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी. ऐसा नहीं कि यह संकट सिर्फ इस क्षेत्र में है,भारत में भी की कई भाषाएं हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 196 भाषाएं ऐसी हैं जिनके ग़ायब होने का ख़तरा है और विलुप्ति की ये दर दुनिया में सबसे ज़्यादा भारत में ही है. इनमें से अधिकांश क्षेत्रीय और क़बीलाई भाषाएं हैं. कई भाषाविदों और विशेषज्ञों ने भाषाओं की विलुप्ति के इस संकट पर चिंता जताई हैं. दुनिया में सबसे तेज़ी से भाषाओं के ग़ायब होने की दर भारत में ही है. इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहां 192 ऐसी भाषाएं हैं और फिर तीसरे नंबर पर है इंडोनेशिया जहां 147 भाषाएं दम तोड़ रही हैं. यूनेस्को के अध्ययन के मुताबिक़ हिमालयी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में क़रीब 44 भाषाएं-बोलियां ऐसी हैं जो जन-जीवन से गायब हो रही है. जबकि पूर्वी राज्यों उड़ीसा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में ऐसी क़रीब 42 भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. भाषाओं का इस भयानक तेज़ी के साथ अदृश्य होते जाना सामाजिक विविधता के लिए भी चिंता की बात है. 1962 के एक सर्वे में भारत में 1,600 भाषाओं का अस्तित्व बताया गया था और 2002 के आंकड़े बताते हैं कि 122 भाषाएं ही सक्रिय रह पाईं.  प्राचीन काल से ही भारत में विभिन्न धर्मों के साथ साथ भाषाओं का भी समावेश होता रहा है. दरअसल कोई भी भाषा अपने में एक पूरी विरासत होती है। भाषा की मृत्यु का अर्थ होता है अपने बीते वक्त से कटना, अपने इतिहास, दर्शन, साहित्य, चिकित्सा-प्रणाली और दूसरी तमाम समृद्ध परंपराओं के मूल स्वरूप से वंचित हो जाना।

 




Tuesday, February 2, 2010

शिक्षा का अधिकार:पार्ट 2

शिक्षा का अधिकार:पार्ट 2


कहां पर है कमी:
मध्यप्रदेश में शिक्षा आज भी उन चुनावी मुद्दों में शामिल है जिसे कभी पूरा नहींकिया जाता है। वर्ष 2015 तक प्रदेश के सभी बच्चों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा सुनिश्चित करवाना है। प्रदेश के गठन के 52 साल बाद भी शतप्रतिशत बच्चों को स्कूल तक लाने की कवायद ही चल रही है। मगर प्रदेश के लाखों बच्चों के नसीब में शिक्षा की लकीर नजर नहीं आती है। तमाम कोशिशों के बावजूद स्कूल छोड़ चुके ढाई लाख बच्चों को दोबारा स्कूल पहुंचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। डाइस की रिपोर्ट के आंकड़े खुद ब खुद इसकी हकीकत बयां करते हैं। चौंकाने वाले तथ्य तो यह हैं कि वर्ष 2000-01 में स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों में से सिर्फ दस फीसदी ही स्कूल छोडक़र जाते थे जबकि वर्ष 2006 तक स्कूल छोडने वाले बच्चों का प्रतिशत 20 के करीब पहुंच गया। नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट के अंतर्गत 17 जिलों में 59012 बाल मजदूर हैं जिनमें से सिर्फ 19072 ही स्कूल जा रहे हैं। इसी तरह इंडस योजना के तहत 5 जिलों के 73119 बाल मजदूरों में से मात्र 28184 को स्कूल में नामांकित बताया जा रहा है। इनके हक में किए जा रहे प्रयासों की पोल खोलने के लिए बैतूल का उदाहरण काफी है जहां 5000 से यादा बाल मजदूर होने पर भी इनके लिए कोई ब्रिज स्कूल आज तक नहीं खुला है। नर्मदा घाटी के विस्थापित परिवारों के हजारों बच्चे हों या पालपुर कूनो के विस्थापित 27 गांवों के बच्चे, सबकी निगाहें आने वाली सरकार पर हैं जो उन्हें स्कूल की सूरत दिखाएगी। होशंगाबाद के पास रानीपिपरिया के सपेरा समुदाय के किसी भी बच्चे को स्कूल में दाखिला नहीं दिया जाता है। सागर के पथरिया गांव की बेड़नी समुदाय की लड़क़ियों को स्कूल में इसलिए अपमानित होना पड़ता है क्योंकि उनके समुदाय की महिलाएं वेश्यावृत्ति करती हैं। पारदी समुदाय को समाज ने अपराधी मान लिया है। इनके बच्चों को स्कूल में ही अपराधी होने का बोध कराया जाता है।2007 के बजट सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण में इस बात का जिक्र था कि ''प्रदेश की सभी 81 हजार 335 प्राथमिक शालाओं को भवन उपलब्ध करा दिए गए हैं। वर्ष 2006-07 मे 2 हजार 284 शालाओं के लिए भवन स्वीकृत होने के पश्चात् कोई भी शासकीय शाला भवनविहीन नहीं हैं।'' जबकि प्रदेश में कई प्राथमिक शालाएं अभी भी भवनविहीन हैं। डाइस रिपोर्ट (2007 में जारी) के मुताबिक 6239 प्राथमिक शालाएं भवनविहीन हैं। इस रिपोर्ट में 2006 तक के आंकड़ें हैं पर सभी प्राथमिक शालाओं को अभी भी भवन उपलब्ध नही कराया जा सका है, जैसा कि सरकार का दावा है। प्रदेश में अभी भी सैकड़ों प्राथमिक शालाएं भवनविहीन हैं। प्रदेश के 10 जिलों में प्राथमिक व मिडिल स्तर की 401 शालालों में मध्यप्रदेश शिक्षा अभियान हस्तक्षेप कर शिक्षा की स्थिति का आकलन कर रहा है। इनमें 332 प्राथमिक शालाएं हैं। इन प्राथमिक शालाओं में शिक्षा गारंटी शाला एवं उन्नयन की हुई शिक्षा गारंटी शालाओं का हिस्सा 40 फीसदी बैठता हैं। यह चिंतनीय तथ्य है कि 401 शालाओं में एकल शिक्षकीय शालाओं का प्रतिशत 23 फीसदी है। आदिवासी बहुल 5 जिले जिलों (धार, झाबुआ, सिवनी, सीधी एवं छिंदवाड़ा) के 237 स्कूलों में एकल शिक्षक शालाओं का हिस्सा 34.2 (81 शालाएं) फीसदी हैं जिनमें लगभग 50 फीसदी हिस्सा (40 शालांए) शिक्षा गारंटी शालाओं का है। 5 जिलों की 81 एकल शालाओं में 4964 बच्चे दर्ज है।1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार अच्छी शिक्षा के लिए 30 बच्चों पर एक शिक्षक लगाया जाना जरूरी है एवं छात्र शिक्षक अनुपात 1:30 रखे जाने की अनुशंसा की गई है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत यह अनुपात 1:40 कर दिया गया है। शाला में 1:40 के अनुपात में शिक्षक नियुक्ति एवं प्राथमिक शाला में कम से कम 2 शिक्षक, माध्यमिक शाला में कक्षावार एक शिक्षक नियुक्त किए जाने का प्रावधान सर्व शिक्षा अभियान के तहत तय है। अफसोसजनक स्थिति है कि उपरोक्त पांच जिलों में 4964 बच्चे एकल शिक्षक शाला में दर्ज होकर बदतर शिक्षा ग्रहण करने को मजबूर है। डाईस प्रतिवेदन 2008 के अनुसार मध्यप्रदेश में प्रारंभिक शिक्षा स्तर पर एकल शिक्षक शालाओं का प्रतिशत 22.12 हैं। यानी 19405 शालाओं में एक-एक शिक्षक नियुक्त है। इन प्राथमिक शालाओं में दर्ज बच्चों का प्रतिशत 19.04 है अर्थात कक्षा 1 से 5 में दर्ज लगभग 21460595 बच्चों की पढ़ाई एकल शिक्षक शाला में की जाती है। यह चौंकाने वाली बात है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 2004-05 में एकल शिक्षक शालाओं में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत 17.7 था, जो वर्ष 2005-6 में 19 प्रतिशत तक बढ़ गया। वर्ष 2004-05 में 100 से ज्यादा बच्चों पर एक शिक्षक के औसत वाली शालाओं का प्रतिशत 4.7 था जो वर्ष 2005-6 में 6 प्रतिशत हो गया।
क्या किया जाये कि बच्चे ज़रा स्कूल जायें
उपरोक्त तथ्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि धार, झाबुआ, सिवनी, सीधी,मंड़ला एवं छिंदवाड़ा जैसे पिछड़े ज़िलों पर अभी भी शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार और तकनीकी रूप से कार्य करने की आवश्यकता है।ऐसे प्रत्येक जिलों में एक शिविर का आयोजन करते हुए गांव के शिक्षित वर्ग को आगे आने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। साथ घर की महिलाएं जो बच्चे की पहली शिक्षक होती है को ज्यादा से ज्यादा शिक्षित और सही मायनों में साक्षर किया जाये ताकि बच्चे की साक्षर होने की शुरूआत को सही दिशा मिल सके।उन इलाकों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया जाये जहां पर अभी विकास के नाम पर महज रोजगार गांरटी योजना जैसी योजनाओं का ही क्रियान्वयन किया गया है। अभी इन जिलो में अभी ऐसे कई गांव हैं जहांपर पढ़ने जाने केलिए कई किमी का सफर छात्रों को करना पड़ता है। इन जिलों में जाकर प्रशासन से मिलकर इनकी इस दुविधाओं को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए । हर स्कूल में मौजूद शिक्षका के सामान्य ज्ञान और उनकी जागरूकता को जाचां और परखा जाना चाहिए ताकि कक्षा में मौजूद छात्र के सर्वागिंक विकास का आधार तर किया जा सके।बच्चों का मन कोमल होता है वे जिस तरह का माहौल अपने आसपास देखते हैं उसी के अनुरूप ख़ुद को ढ़ाल लेते हैं,यह माहौल ही बच्चों के भविष्य का निर्णायक होता है।..अगर शिक्षा को सही मायनों में इन आदिवासी जिलों के बच्चों के लिए कारगर बनाना है तो इन आदिवासियों जिलों के पहुँचविहीन इलाकों में जाकर वातावरण को शिक्षा के योग्य बनानेकी कोशिश की जानी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा कोशिश की जाये किबच्चों के लिए स्कूल महज़ मध्यान भोजन और समय बिताने का कमरा ना हो बल्कि यह उनके लिए उनके भविष्य को संवारने का एक माध्यम बन सके। स्कूल से घर और घर से स्कूल तक का सफर बच्चे के लिए उसके स्वणिम भविष्य का रास्ता हो.....।

शिक्षा का अधिकार

शिक्षा का अधिकार

Education shouldn't be a profit earning business: Chidambaram

“मातृ-भाषा में यदि शिक्षा की धाराप्रशस्त न हो तो इस विद्याहीन देश में मरुवासी मन का क्या होगा” गुरुदेव


विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता हैं .आज देश ने आकाश से बढ़कर ब्रह्माण्ड को छुने में कामयाबी हासिल की हैं.लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर पहले अधिक चिंता जनक बना हुआ है।आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएं मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जारहा है।आज दौर में भले ही हमने ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो गई है. देश में सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का बिल भले ही पास हो गया हो लेकिन यह आधारभूत अधिकार अभी भी केवल कागजों पर ही है। वर्ष 2002 में संविधान बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देना को फंडामेंटल राइट में शामिल किया था। इसकी तरह काफी बहस के बाद 2009 अगस्त में शिक्षा का अधिकार बिल भी लोकसभा में पास कर दिया था। लेकिन कई महीने बाद भी इन दोनों को लेकर अधिसूचना जारी नहीं की जा सकी। जब तक इस बिल को लेकर अधिसूचना जारी नहीं हो जाती, तब तक यह इस बिल का कोई मतलब नहीं है।
स्कूली शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के सिलसिले में जो कुछ प्रश्न बार-बार उठाए जाते हैं वे हैं- शिक्षकों कीअनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां इत्यादि। परंतु इन समस्याओं को अलग-अलग रूप में देखा नहीं जा सकता, क्योंकि इनकी जड़ें सारी व्यवस्था में फैली हैं। इसलिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाना जरूरी है। इसके लिए हमें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की मूल समस्याओं पर गौर करना होगा। पहली मूल समस्या है प्रवेश (ऐक्सेस) की कमी। आजादी के 62 साल बाद भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं
पूरे देश में यह संख्या 30 प्रतिशत से कम नहीं होगी। दाखिले का अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो) सूचक नहीं हो सकता। क्योंकि दाखिल बच्चों में से अधिकांश विभिन्न कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आधुनिकतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कक्षा 10 तक पहुंचते-पहुंचते 61 प्रतिशत बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी थी। प्रवेश की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहला कार्य होना चाहिए - अतिरिक्त स्कूलों का निर्माण, अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली और अतिरिक्त शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का निर्माण। शिक्षा की दूसरी मूल समस्या है, इसकी अति निम्न गुणवत्ता। इसे बढ़ाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है न्यूनतम मानकों (नौर्म्स) का निर्धारण कर उन्हें सभी स्कूलों में लागू करना। शिक्षा अधिकार विधेयक की अनुसूची में कुछ मानक निर्धारित किए गए हैं। परंतु ये नितान्त अपर्याप्त हैं। अनेक अत्यावश्यक मानकों का इसमें जिक्र ही नहीं है जैसे- जन आबादी से स्कूल की दूरी, प्रति स्कूल और प्रति क्लास में छात्रों की संख्या, कक्षाओं में फर्नीचर, पाठय़-उपकरण, प्रयोगशाला का स्तर, शिक्षकों की योग्यता, प्रशिक्षण, वेतनमान एवं सेवा की शर्ते इत्यादि। कुछ मानकों का जिक्र तो है पर उनका स्पष्ट उल्लेख करने के बदले कहा गया है, ‘जैसा सरकार निर्धारित करे।’ इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अयोग्य शिक्षकों (पैरा टीचर्स) की बहाली और बहु कक्षा पढ़ाई का मौजूदा सिलसिला जारी रहेगा। फिर तो गुणवत्ता की बात करना भी फिजूल है।
प्रवेश एवं गुणवत्ता, इन दोनों समस्याओं का असली कारण है वित्त का अभाव। शिक्षा अधिकार विधेयक से संलग्न वित्तीय स्मरण-पत्र में कहा गया है, ‘विधेयक को अमल में लाने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों का परिणाम निर्धारित करना फिलहाल संभव नहीं है।’ यह कथन गलत है। पिछले 10 वर्षो में भारत के हर बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने में जो खर्च होगा उसका कई बार अनुमान लगाया जा चुका है। 1999 में तापस मजूमदार समिति ने बताया कि इसके लिएअगले 10 वर्षो में 1,37,000 करोड़ अतिरिक्त रकम लगेगी। 2005 में शिक्षा-परामर्श बोर्ड (केब) के एक विशेषज्ञ दल ने अनुमान लगाया था कि इस पर 6 साल तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 53,500 करोड़ और अधिकतम 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त व्यय होगा। फिलहाल प्रारंभिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से धनराशि उपलब्ध कराई जाती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में करीब दोगुनी वृद्धि के बाद भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वशिक्षा अभियान के लिए प्रतिवर्ष करीब 30,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस रकम से न तो देश के सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाया जा सकता है और न गुणवत्ता में विशेष परिवर्तन लाया जा सकता है।
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तीसरी मूल समस्या है, इसमें व्याप्त असमानता और भेदभाव। देश के सामाजिक वर्गीकरण के साथ-साथ हमारे यहां स्कूलों का भी वर्गीकरण है, जिसके मुताबिक धनी और विशिष्ट वर्ग के बच्चे ज्यादा फी वाले अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, और गरीब व निम्न वर्ग के बच्चे जिनकी संख्या कुल स्कूली छात्रों का करीब 80 प्रतिशत है। इसके चलते देश का सामाजिक विभाजन और भी बढ़ता जा रहा है। सभी स्कूलों में न्यूनतम मानक लागू करना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा सकता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भेदभाव को मिटाने में भी मदद कर सकता है। भेदभाव मिटाने का दूसरा उपाय है पड़ोस के स्कूल के सिद्धांत को लागू करना जिसके मुताबिक हर स्कूल को उसके लिए निर्धारित पोषक क्षेत्र अथवा पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला देना होगा। इसका भी शिक्षाधिकार विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। बल्कि, स्कूलों के वर्तमान वर्गीकरण को कायम रखने की व्यवस्था है।
देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देने के बाद सरकार अब माध्यमिक शिक्षा का अधिकार भी देने जा रही है। मानव संसाधन विकास के अनुसार आने वाले पाँच वर्षों में माध्यमिक शिक्षा को भी बच्चों के मौलिक आधार के रूप में शामिल किया जा सकता है। जिसके तहत बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी अनिवार्य व मुफ्त होगी। उल्लेखनीय है कि संसद ने पहले ही 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा बिल पारित किया था। इसके तहत शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गई थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक 2013 या 2015 तक सरकार बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी मुफ्त व अनिवार्य कर सकती है। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने में सरकार को पाँच साल में एक लाख 71 हजार 484 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे और पाँच लाख दस हजार शिक्षकों को भर्ती करना पड़ेगा। इसी वर्ष 27 अगस्त को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून भारत के गजट में प्रकाशित हो गया। लेकिन अभी यह कानून लागू नहीं हुआ है।
हालांकि देश के 86वां संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) में शिक्षा को जोड़कर मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार 6 से 14 आयु समूह के बच्चों तक सीमित कर दिया था। यह बिल इसी अनुच्छेद के तहत लाया गया है। वर्ष १९५0 में जब संविधान ने सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने के निर्देश दिए थे,तब के सामाजिक-आर्थिक हालात आज से एकदम अलग थे। आज १२वीं कक्षा की परीक्षा पास किए बगैर रोजगार की बात तो दूर, आईटीआई व पॉलीटेक्निक या फिर अन्य किसी व्यावसायिक कोर्स में भी दाखिला नहीं मिल सकता, तो फिर देश के बच्चों को आजादी के बाद हर साल इंतजार करवाकर कौन-सा मौलिक अधिकार दिया जा रहा है?
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी सहभागिता (पीपीपी) का सिद्धांत लागू करने की नीति बन चुकी है। यानी अब सार्वजनिक धन का उपयोग सरकार शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए करने जा रही है। कुछ प्रदेश सरकारों ने तो सरकारी स्कूलों को निजी कंपनियों को देने के लिए टेंडर तक जारी करने या फिर अन्य तरीकों से सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है।अप्रैल2009 में योजना आयोग ने स्कूली शिक्षा को सार्वजनिक-निजी सहभागिता के सांचे में ढालने के लिए एक बैठक बुलाई थी, जिसमें १८ कॉपरेरेट घरानों के प्रतिनिधि मौजूद थे, एक भी शिक्षाविद् या शिक्षक नहीं था। शिक्षा को कारोबार में बदलने की इस घोषित सरकारी नीति के चलते इस बिल का खोखलापन अपने आप जाहिर हो जाता है।
वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वर्गो और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 6-14 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से ४ करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कम्प्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल है। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहां से लाएंगे? इनके बगैर वे वहां पर कैसे टिक पाएंगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएंगे जबकि उनके साथ पढ़े हुए फीस देने वाले बच्चे १२वीं कक्षा पास करके आईआईटी व आईआईएम या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। इन सवालों का एक ही जवाब था- समान स्कूल प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्कूल (निजी स्कूलों समेत) पड़ोसी स्कूल होगा।
सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद ४१ के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्चशिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्चशिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है। जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्चशिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्धांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएंगे और साथ में भारत की अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे। क्या ऐसे कानून के लिए और आधी सदी तक इंतजार किया जाए या संसद पर जन-दबाव बनाकर इसी बिल में यथोचित संशोधन करवाने के लिए कमर कसी जाए?
इन सभी सरकारी आंकड़ों से शिक्षा की कार्यशैली से तो आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है ।पर शिक्षा के लिए शिक्षायोजना अधिकार का क्रियांवयन होना जरूरी है.सिर्फ शिक्षा का मौलिक अधिकार का कानून सरकारी दस्तावेजों से ही नहीं मिल सकताहै। सरकारी और गैर सरकारी संगठनो को अब जड़ चेतनके साथ जुडकर शुरूआत करनी होगी। आम जनता की भागीदारी के लिए मीड़िया को भी सामने आना होगा लोगों को जागरूक और प्रोत्साहित करना होगा।मध्य प्रदेश के उन जिलों में जहां शिक्षा का स्तर आज भी न्यूनतम है लोगों को शिक्षा के बढते दायरें में शामिल करने की आवश्यकता है।शिक्षा के इस अधिकार को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है...
1. शिक्षित युवाओं को शिक्षक बननेकी राह में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं उचित ट्रेनिंग और आय देना चाहिए।
2. सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केंद्रित होना चाहिए।
3. इस चुनौती को जन भागीदारी,मीड़िया, और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाना चाहिए।
4. सिर्फ शहरों और जिलो तक ही सीमित ना रह कर गांवों और छोटे कस्बों तक शिक्षा के सही मायनों को पहुचाना होगा।शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है।