अभी अभी ......


Wednesday, June 30, 2010

अरूधंती राय अब तो कुछ शर्म करों.....जवानों हम शर्मिदां हैं.....

आज फिर 26 जवान नक्सलियों की भेंट चढ़ गये हैं.... घात लगाये बैठे इन उपद्रवियों नें ना कितनी मांओं से उनका बेटी ..बहनों से भाई ..बच्चों से उनके पिता...औऱ कितनी ही सुहागिनों की मांग उजाड डाली है........कुछ अशांत दिमाग के चलते शोषण मुक्त समाज की अवधारणा वाले इस नक्सल  आंदोलन ने
लोगों को वेबज़ह परेशान करने और आमदनी का एक ज़रिया मात्र बनाकर रख दिया
है। नक्सलवाद का मूल सिंद्धात बदलकर अब सिर्फ हिंसा तक केंद्रित रह गया है।
इनका संघर्ष सर्वहिताय से हटकर राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र बनकर
रह गया है। ..इन उपद्रवियों नें आज फिर ना कितनों मांओ से उनके बेटे छीन लियें हैं ना जाने कितने बच्चें आनाथ हो गये....ना कितनों सुहागिनों का सिंदुर पुछ गया....अरे ओ मामूली चीजों के देवता की उपासक क्या इन शहीदों में तुम्हें कोई अपना सगा नज़र नहीं आता है...क्या तुम्हारे कानों में इन शहीदो की विधवाओं की चीखें इनका रूदन नहीं टकरा रहा है...या  महिमामंड़ित महत्वकाक्षां के चलते अब तुम निष्ठुर हो गई हो....मैं आप सब से पूछता हूं कौन जिम्मेदार है इन मांओ ,बहनो.बेटो के आंखों के आसूंओं का जिम्मेदार क्या सिर्फ सरकार या फिर अरूधती राय जैसे महत्वकाँक्षी

Tuesday, June 29, 2010

शिक्षा का अधिकार



विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता हैं। आज देश ने आकाश से बढ़कर ब्रह्माण्ड को छूने में कामयाबी हासिल की हैं। लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर पहले अधिक चिंताजनक बना हुआ है। आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएं मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जारहा है। आज दौर में भले ही हमने ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो गई है। देश में सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का बिल भले ही पास हो गया हो लेकिन यह आधारभूत अधिकार अभी भी केवल कागजों पर ही है। वर्ष 2002 में संविधान बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देना को फंडामेंटल राइट में शामिल किया था। इसकी तरह काफी बहस के बाद  शिक्षा का अधिकार बिल भीपास कर दिया था।
स्कूली शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के सिलसिले में जो कुछ प्रश्न बार-बार उठाए जाते हैं वे हैं- शिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां इत्यादि। परंतु इन समस्याओं को अलग-अलग रूप में देखा नहीं जा सकता, क्योंकि इनकी जड़ें सारी व्यवस्था में फैली हैं। इसलिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाना जरूरी है। इसके लिए हमें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की मूल समस्याओं पर गौर करना होगा। पहली मूल समस्या है प्रवेश (ऐक्सेस) की कमी। आजादी के 62 साल बाद भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं। पूरे देश में यह संख्या 30 प्रतिशत से कम नहीं होगी। दाखिले का अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो) सूचक नहीं हो सकता। क्योंकि दाखिल बच्चों में से अधिकांश विभिन्न कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आधुनिकतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कक्षा 10 तक पहुंचते-पहुंचते 61 प्रतिशत बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी थी। प्रवेश की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहला कार्य होना चाहिए – अतिरिक्त स्कूलों का निर्माण, अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली और अतिरिक्त शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का निर्माण। शिक्षा की दूसरी मूल समस्या है, इसकी अति निम्न गुणवत्ता। इसे बढ़ाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है न्यूनतम मानकों (नौर्म्स) का निर्धारण कर उन्हें सभी स्कूलों में लागू करना। शिक्षा अधिकार विधेयक की अनुसूची में कुछ मानक निर्धारित किए गए हैं। परंतु ये नितान्त अपर्याप्त हैं। अनेक अत्यावश्यक मानकों का इसमें जिक्र ही नहीं है जैसे- जन आबादी से स्कूल की दूरी, प्रति स्कूल और प्रति क्लास में छात्रों की संख्या, कक्षाओं में फर्नीचर, पाठय़-उपकरण, प्रयोगशाला का स्तर, शिक्षकों की योग्यता, प्रशिक्षण, वेतनमान एवं सेवा की शर्ते इत्यादि। कुछ मानकों का जिक्र तो है पर उनका स्पष्ट उल्लेख करने के बदले कहा गया है, ‘जैसा सरकार निर्धारित करे।’ इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अयोग्य शिक्षकों (पैरा टीचर्स) की बहाली और बहु कक्षा पढ़ाई का मौजूदा सिलसिला जारी रहेगा। फिर तो गुणवत्ता की बात करना भी फिजूल है।
प्रवेश एवं गुणवत्ता, इन दोनों समस्याओं का असली कारण है वित्त का अभाव। शिक्षा अधिकार विधेयक से संलग्न वित्तीय स्मरण-पत्र में कहा गया है, ‘विधेयक को अमल में लाने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों का परिणाम निर्धारित करना फिलहाल संभव नहीं है।’ यह कथन गलत है। पिछले 10 वर्षो में भारत के हर बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने में जो खर्च होगा उसका कई बार अनुमान लगाया जा चुका है। 1999 में तापस मजूमदार समिति ने बताया कि इसके लिएअगले 10 वर्षों में 1,37,000 करोड़ अतिरिक्त रकम लगेगी। 2005 में शिक्षा-परामर्श बोर्ड (केब) के एक विशेषज्ञ दल ने अनुमान लगाया था कि इस पर 6 साल तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 53,500 करोड़ और अधिकतम 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त व्यय होगा। फिलहाल प्रारंभिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से धनराशि उपलब्ध कराई जाती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में करीब दोगुनी वृद्धि के बाद भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वशिक्षा अभियान के लिए प्रतिवर्ष करीब 30,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस रकम से न तो देश के सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाया जा सकता है और न गुणवत्ता में विशेष परिवर्तन लाया जा सकता है।
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तीसरी मूल समस्या है, इसमें व्याप्त असमानता और भेदभाव। देश के सामाजिक वर्गीकरण के साथ-साथ हमारे यहां स्कूलों का भी वर्गीकरण है, जिसके मुताबिक धनी और विशिष्ट वर्ग के बच्चे ज्यादा फी वाले अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, और गरीब व निम्न वर्ग के बच्चे जिनकी संख्या कुल स्कूली छात्रों का करीब 80 प्रतिशत है। इसके चलते देश का सामाजिक विभाजन और भी बढ़ता जा रहा है। सभी स्कूलों में न्यूनतम मानक लागू करना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा सकता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भेदभाव को मिटाने में भी मदद कर सकता है। भेदभाव मिटाने का दूसरा उपाय है पड़ोस के स्कूल के सिद्धांत को लागू करना जिसके मुताबिक हर स्कूल को उसके लिए निर्धारित पोषक क्षेत्र अथवा पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला देना होगा। इसका भी शिक्षाधिकार विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। बल्कि, स्कूलों के वर्तमान वर्गीकरण को कायम रखने की व्यवस्था है।
देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देने के बाद सरकार अब माध्यमिक शिक्षा का अधिकार भी देने जा रही है। मानव संसाधन विकास के अनुसार आने वाले पाँच वर्षों में माध्यमिक शिक्षा को भी बच्चों के मौलिक आधार के रूप में शामिल किया जा सकता है। जिसके तहत बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी अनिवार्य व मुफ्त होगी। उल्लेखनीय है कि संसद ने पहले ही 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा बिल पारित किया था। इसके तहत शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गई थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक 2013 या 2015 तक सरकार बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी मुफ्त व अनिवार्य कर सकती है। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने में सरकार को पाँच साल में एक लाख 71 हजार 484 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे और पाँच लाख दस हजार शिक्षकों को भर्ती करना पड़ेगा। इसी वर्ष 27 अगस्त को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून भारत के गजट में प्रकाशित हो गया। लेकिन अभी यह कानून लागू नहीं हुआ है।
हालांकि देश के 86वां संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) में शिक्षा को जोड़कर मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार 6 से 14 आयु समूह के बच्चों तक सीमित कर दिया था। यह बिल इसी अनुच्छेद के तहत लाया गया है। वर्ष १९५0 में जब संविधान ने सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने के निर्देश दिए थे, तब के सामाजिक-आर्थिक हालात आज से एकदम अलग थे। आज १२वीं कक्षा की परीक्षा पास किए बगैर रोजगार की बात तो दूर, आईटीआई व पॉलीटेक्निक या फिर अन्य किसी व्यावसायिक कोर्स में भी दाखिला नहीं मिल सकता, तो फिर देश के बच्चों को आजादी के बाद हर साल इंतजार करवाकर कौन-सा मौलिक अधिकार दिया जा रहा है?
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी सहभागिता (पीपीपी) का सिद्धांत लागू करने की नीति बन चुकी है। यानी अब सार्वजनिक धन का उपयोग सरकार शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए करने जा रही है। कुछ प्रदेश सरकारों ने तो सरकारी स्कूलों को निजी कंपनियों को देने के लिए टेंडर तक जारी करने या फिर अन्य तरीकों से सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है।अप्रैल2009 में योजना आयोग ने स्कूली शिक्षा को सार्वजनिक-निजी सहभागिता के सांचे में ढालने के लिए एक बैठक बुलाई थी, जिसमें १८ कॉपरेरेट घरानों के प्रतिनिधि मौजूद थे, एक भी शिक्षाविद् या शिक्षक नहीं था। शिक्षा को कारोबार में बदलने की इस घोषित सरकारी नीति के चलते इस बिल का खोखलापन अपने आप जाहिर हो जाता है।
वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वर्गो और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 6-14 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से ४ करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कम्प्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल है। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहां से लाएंगे? इनके बगैर वे वहां पर कैसे टिक पाएंगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएंगे जबकि उनके साथ पढ़े हुए फीस देने वाले बच्चे १२वीं कक्षा पास करके आईआईटी व आईआईएम या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। इन सवालों का एक ही जवाब था- समान स्कूल प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्कूल (निजी स्कूलों समेत) पड़ोसी स्कूल होगा।
सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद ४१ के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्चशिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्चशिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है। जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्चशिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्धांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएंगे और साथ में भारत की अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे। क्या ऐसे कानून के लिए और आधी सदी तक इंतजार किया जाए या संसद पर जन-दबाव बनाकर इसी बिल में यथोचित संशोधन करवाने के लिए कमर कसी जाए?
इन सभी सरकारी आंकड़ों से शिक्षा की कार्यशैली से तो आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है ।पर शिक्षा के लिए शिक्षायोजना अधिकार का क्रियांवयन होना जरूरी है.सिर्फ शिक्षा का मौलिक अधिकार का कानून सरकारी दस्तावेजों से ही नहीं मिल सकताहै। सरकारी और गैर सरकारी संगठनो को अब जड़ चेतनके साथ जुडकर शुरूआत करनी होगी। आम जनता की भागीदारी के लिए मीड़िया को भी सामने आना होगा लोगों को जागरूक और प्रोत्साहित करना होगा। शिक्षा के इस अधिकार को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।
1. शिक्षित युवाओं को शिक्षक बननेकी राह में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं उचित ट्रेनिंग और आय देना चाहिए।
2. सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केंद्रित होना चाहिए।
3. इस चुनौती को जन भागीदारी,मीड़िया, और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाना चाहिए।
4. सिर्फ शहरों और जिलो तक ही सीमित ना रह कर गांवों और छोटे कस्बों तक शिक्षा के सही मायनों को पहुचाना होगा। शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

बात समझ में नहीं आती

मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि लोग किसी को फालो करने से
पहले ये क्यों देखते  हैं कि कितने लोग उसे फालो कर रहे हैं.............

Saturday, June 26, 2010

इस नाटक पर क्या हमें शर्म नहीं आनी चाहिए ....?

लोग उन  शहीदों की याद में इकट्ठे होते हैं जो अपनी मासूमियत में एक दिन हाकिमों की गोलियों का शिकार हुए थे,लोग उन दीवारों को देख रहे हैं जिन दीवारों में उन गोलियों के निशान आज तक महफूस हैं।लोग कितनी ही देर अपनी अपनी खामोशियों में ड़ूबे रहते हैं एक मन और एक तन होकर।लगता है हर बार जैसे कि सिर्फ उन शहीदोंं की याद में ही इस तरह से सर झुकाकर खड़े ना हों बल्कि उन शहीदों की याद में इस तरह से सिर झुकाकर खड़े जो आज भी हमारी गलियों में और बाजारों में शहीद होतें हैं।कभी "ड़ायर" नाम के एक "हाकिम" ने गोलियां चलाई थी,आज        "सिस्टम" नाम की एक चीज गोलियां चला रही है.यह बात अलग हैं कि इन गुमनाम  गोलियों के निशान भी गुमनाम होते हैं।पर इनसे सिर्फ हमारे लोग ही नहीं हमारी जुबान के लफ्ज़ भी ज़ख्मी हो रहे हैं।','हक','सच्चाई','ईमान' औऱ मूल्यवानता जैसे शब्द आज इतने जख्मी हो गयें हैं.......इस सिस्टम के पास सिवाय मजबूर लोगों के साथ हू तू तू खेलने के आलावा क्या और भी कुछ है....मैं आपसे पूछता  हूं....भोपाल गैस त्रासदी के बाद हो रहे  इस नाटक पर क्या हमें शर्म नहीं आनी चाहिए ....?

Friday, June 25, 2010

प्रगति का दौर

                         सर्वत्र प्रगति का दौर है चारों और प्रगति ही प्रगति है जंगलों ने प्रगति की शहर हो गये शहरों ने प्रगति की तो जंगलों को आत्मसात कर लिया...जंगलों को शहर वासी वन विभाग के नाम से जानते हैं जंगल हो ना हो जंगल विभाग सभी जगह पाया जाता है...और वन विभाग वालें इतने शाकाहारी होते हैं कि सिवाय पेड़ों के और कुछ नहीं खाते....

अगर वो शराब होती


मैं तोड़ लेता अगर वो गुलाब होती,
मैं देख लेता अगर वो ख्बाब होती ...
सब जानते हैं मैं नशा नहीं करता..
मगर फिर भी पी लेता अगर वो शराब होती

तन्हा हो तो कभी मुझे ढूढ़ लेना,


तन्हा हो तो कभी मुझे ढूढ़ लेना,
दूरियों से नहीं अपने दिल से पूछ लेना
आपके ही पास रहते हैं हम
 यादों से नहीं तो गुजारें हुए लम्हों से पूछ लेना.......

Friday, June 18, 2010

मैं आपसे पूछता हूं

न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं।नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है।........जी क्या आपको नहीं लगता है कि ऐसे समय में अरूधंती राय जैसे लेखेकों की कलम पर नज़र बंदी की जरूरत है..........मैं आपसे पूछता हूं ...........क्या हमारा मूक दर्शक बनकर बैठे रहना हमारे संविधान और हमारी आत्मा दोनों के साथ विश्वासघात नहीं है....सब चीजें छोड दीजिए एक दिन बैठ कर सिर्फ ये सोचिए क्या हो रहा है इस देश में क्या लोगो के पास अब देश के महात्माओं के चरित्र हनन को रोकने का भी समय नही हैं ....मैं पूछता हूं आपसे... क्या आप खुद भी अपने नैतिक कर्तव्यों से पीछा छुड़ा रहे हैं....फर्क पडना चाहिए...मुझे आपको हम सब को मैं नेताओं की बात नहीं कर रहा लेकिन पर इतना मत भूलिए आजादी के बाद जिस व्यक्ति के लिए ऐशो आराम के सारे रास्ते खुलें उन्हे छोड़ उसने सिर्फ दो वक्तका आधा पेट खाना खादी का चरखा और सिर्फ लंगोट को चुना देश में किसी गरीब को पूरा कपड़ा मिले इसलिए इस महात्मा ने सिर्फ आधे तन को ढक कर काम चलाया है ...फर्क पडना चाहिए मेरे दोस्त ....

क्या हमारी आंखों का पानी इतना मर गया है

भोपाल गैस त्रासदी के पर आये फैसले नें अब एक नया रूख ले लिया है न्याय से वंचित लोगों की आंखों से निकले आसुओं को फोछने के बजाये अब यह मुद्दा मतलबी और राजनीति की नाज़ाजय औलादों ने अपने कद काठी को बढ़ाने और देश दोनों बड़ी पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने के लिए भुना रहे हैं.....मैं आपसे पूछता हूं....क्या हमारी आंखों का पानी इतना मर गया है कि अब हमारे राजनेता हमारे संगी साथियों की कब्र पर खड़े होकर उनकी चिता की आग से अपने लिए रोटियां सेकें और हम कुछ ना बोले.... भोपाल गैस त्रासदी के पर आये फैसले नें अब एक नया रूख ले लिया है न्याय से वंचित लोगों की आंखों से निकले आसुओं को फोछने के बजाये अब यह मुद्दा मतलबी और राजनीति की नाज़ाजय औलादों ने अपने कद काठी को बढ़ाने और देश दोनों बड़ी पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने के लिए भुना रहे हैं.....मैं आपसे पूछता हूं....क्या हमारी आंखों का पानी इतना मर गया है कि अब हमारे राजनेता हमारे संगी साथियों की कब्र पर खड़े होकर उनकी चिता की आग से अपने लिए रोटियां सेकें और हम कुछ ना बोले.... हमारे देश मैं खराब रिजल्ट आते ही समूची शिक्षा प्रणाली को घेरने की कवायद शुरू हो जाती हें ,जबकि हम साल भर तक बच्चे की तरफ झांकते तक नहीं ,यही हाल भोपाल गैस त्रासदी का हुआ हें ,पच्चीस वर्षों से अनेकों पक्ष- विपक्ष तथा तमाम अफसरान अपने पेट मैं मलबा समेटे बैठे थे ,और कोर्ट से जजमेंट आते ही पिल पड़े ,जैसे वर्षों से बंद पड़े रोजगार की चल निकली ,जिन्होंने भुगता हें और जो भुगत रहें हैं उनका क्या ? पर इन फुरसतियों की चल निकली ,रोटी किसकी सिकेगी ये सारा देश बखूबी जानता हें ..

Friday, June 11, 2010

जवाब चाहता हूं मैं

कहानी की तरह हूं..पानी की तरह हूं

चाहता हूं...छुपाना खुद को..पल भर की जवानी की तरह हूं

खोजता हूं खुद को...लेकिन खो जाता हूं..

लगता है रेगिस्तान में मृग की तरह हूं

वक्त के साथ बदलना चाहता हूं लेकिन समय थमता नहीं

लिखता हूं ..मिटाता हूं

चाहता हूं..छुपाता हूं

खुद की पहचान में भटकाता हूं

आखिर कौन हूं मैं ?

जवाब चाहता हूं मैं

गांधी के आदर्श

भरे मंच से एक फिर गांधी के आदर्शों से खिलबाड किया गया है लेकिन इस बार किसी बाहर से नहीं देश की मामूली चीजों को देवता बनाने वाली प्रसिद्दी के लोभ में फसी लेखिका ने .अरूधती राय ने एक फिर बापू के अंहिसा के रास्तों को झूठा साबित करने की कोशिश की है मैं आपसे पूछता हूं जिस व्यक्ति की परिभाषा करने के लिए पूरी एक शताब्दी कम पड जाये उसे भरे बाजार खींचना कहां तक उचित है और इतनी बडी आलोचना के बाद भी प्रशासन मूक है ...मैं आपसे पूछता हूं

क्या उस लंगोट वाले बाबा का त्याग इस बदनाम लेखिका के आगे छोटा पड़ गया है
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं।नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है।........जी क्या आपको नहीं लगता है कि ऐसे समय में अरूधंती राय जैसे लेखेकों की कलम पर नज़र बंदी की जरूरत है..........मैं आपसे पूछता हूं ...........क्या हमारा मूक दर्शक बनकर बैठे रहना हमारे संविधान और हमारी आत्मा दोनों के साथ विश्वासघात नहीं है

                                                  फर्क पडना चाहिए...मुझे आपको हम सब को मैं नेताओं की बात नहीं कर रहा लेकिन पर इतना मत भूलिए आजादी के बाद जिस व्यक्ति के लिए ऐशो आराम के सारे रास्ते खुलें उन्हे छोड़ उसने सिर्फ दो वक्तका आधा पेट खाना खादी का चरखा और सिर्फ लंगोट को चुना देश में किसी गरीब को पूरा कपड़ा मिले इसलिए इस महात्मा ने सिर्फ आधे तन को ढक कर काम चलाया है ...फर्क पडना चाहिए मेरे दोस्त

Thursday, June 10, 2010

मां

किसी के हिस्से घर आया
किसी के हिस्से मकान
किसी के हिस्से खेती
किसी केहिस्से दुकान आई
आई मैं घर में सबसे छोटा था
मेरे हिस्से में मां आई


यूं कहीं से याद आ गया

सपने

दुनिया¡ में हर ईन्सान के कुछ सपने होते है।
इस प्यार भरी दुनिया¡ में कुछ अपने होते है।
मगर फिर भी एसा लगता है।
जैसे हर महफिल में हम तन्हा होते है।
सपने सजोना हर र्इसांन को अच्छा लगता है,
सपनों को सच करना बड़ा प्यारा लगता है।
इन्ही सपनों में कई फूल खिलते है,
जुदा होकर भी लोग सपनों में मिलतें है।
सपनों की इस दुनिया¡ में उतरना किसे अच्छा नही लगता,
मगर हर सपना ना जाने क्यो सच्चा नही लगता।
सजोए हुए सपने जब टूट जाते है,
लगता है, जैसे चा¡द तारे रूठ जाते है।
सपने जब बिखर जाते है, तो
संग दिल के अरमान जल जाते है।
इस दुनिया¡ में रह जाता है, ये दिल,
तन्हा-तन्हा और सिर्फ तन्हा।

मैं चुप हूं......

Wednesday, June 9, 2010

बेटी हूं मैं, कोई पाप नहीं

                                                                     भारत में लगातार बढ़ती जनसंख्या एक चिंता का विषय बनी हुई है विश्व में चीन के बाद भारत दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है जहां एक ओर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन का दवाब विकास की गति को बाधित कर रहा है वहीं दूसरी ओर भू्रण हत्या के कारण घटता लिंगानुपात समाज के संतुलन को बिगाड़ रहा है। भारत में कन्या भ्रूण हत्या का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।सरकारी स्तर पर किए गए तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आ रही है। आजादी से पहले लड़किया मात पिता पर बोझ समझी जाती थी और पैदा होने के बाद ही उन्हे मार दिया जाता था लेकिन विज्ञान के बढते दायरे ने भ्रण हत्या को बढ़ावा दिया है भारत विश्व में के उन देशों में शामिल है जहां पर लिंगानुपात में भारी अंतर है लिंगानुपात से मतलब होता है प्रति हजार पुरूषों में महिलाओं की संख्या 1901 में भारत लिंगानुपात 972 जो कि गिरते गिरते 1991 में 927 हो गया1991 2001 में यह अनुपात 933 हुआ 2001 की जनगणना में लिंगानुपात की स्थिति ने इस बात पर बल दिया कि भारत में लिंग विरोधीसमाजिक व्यवस्था में परिवर्तन आ रहा है लेकिन इसी जनगणना में जब हम 0-6 वर्ष आयु के लिंग अनुपात में नज़र डालें तो सारी आशाएं चकनाचूर हो जाती है इस वर्ग में लिंगानुपात औऱ भी कम हो गया था जिससे इस बात का पता चलता है कि देश में लिंग भेद व्यवस्था कमजोर होने बजाये और फिर मुखर हो रही हैएक सर्वे के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पांच लाख कन्या भू्रण हत्या होती है तथा पिछले दो दशक में एक करोड़ लड़कियां कम हो गई हैं।आलम यह कि लिंगानुपात का यह सामाजिक दुष्परिणाम पंजाब औऱ हरिय़ाणा जैसे राज्यों में सबसे अधिक है जहां युवकों का विवाह कठिन होता जा रहा है तो दूसरी तरफ पर्वी बिहारऔर पूर्वी उत्तर प्रदेश में लड़कियों के लिए भारी रकम खर्च कर उन्हे खरीदा तक जा रहा है खरीद कर लाई गई दुल्हनो को समाज औऱ परिवार दोनों जगहों पर ही सम्मान नहीं मिल पाता है यूनीसेफ के 2007के आंकड़ो पर यकीन करें तो लड़कियों की स्थिति को लेकर भारत का स्थान पाकिस्तान और नाइजीरिया से भी नीचे है।यूनीसेफ की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 7000 लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है।देश में लिंग जांच औऱ कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ा व्यवसाय बनकर उभरा है।विश्व की बेहतरीन तकनीकों का निर्माण करने वाली कंपनियों के लिए भारत अलट्रासाउंड़ मशीनों के व्यापार का एक बड़ा स्त्रोत बनकर उभरा है ।एक अनुमान है कि हर साल देश 300करोड से भी ज्यादा की मशीनें बाजार में बेज दी जाती हैं इन आधुनिक तकनीकों के चलते यह सुलभ हो गया है। आसानी इस बात का पता लगाया जा सकता है कि गर्भ में पल बच्चा लडका है या लडकी मध्य प्रदेश में सबसे कम लिंगानुपात वालें जिले मुरैना मे तो हर गली में इस मशीने आपको देखने में मिल जायेगी कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों को देखे तो यह प्रवृत्ति गरीब परिवारों के बजाए संपन्न घरों में अधिक है। महिलाएं चाहे जितनी भी शिक्षित हो जायें लेकिन परिवारिक दबाब और भावनाओं के चलते लडके औऱ लड़कियों में से उनकी पहली पसंद लड़के ही होते हैं इसके पीछे सबसे बड़ा कारण समाज में बेटे की मां होना अपनेआप में गर्व का विषय होता है जहां बेटी पैदा होने पर दिन रात के ताने सुनने पड़ते है बहीं बेटे होने पर बहूओं को सर आंखों पर बिटाया जाता है।साथ ही साथ भारतीयों के भीतर बैठी एक विकृति भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसका सीधा तालुक्क मोक्ष प्राप्ति माना जाता है भारतीय रीति अनुसार ऐसा माना जाता है कि बेटा ही कुल को स्वर्ग का रास्ता दिखाताहै।



दो बच्चों की अनिवार्यता और कन्या भ्रूण हत्या

परिवार का आकर सीमित करने और छोटे परिवार की धारणा को प्रबल करने के उद्देश से सरकार द्वारा दो बच्चों के सिद्धात को लागू किया सबसे पहले यह राजस्थान में 1992 में फिर हरिय़ाणा 1993 उसके बाद मध्य प्रदेश 2000 (जिसे वापस लिया गया था और अभी इसके बारे में मुझे पता नही है कि स्थिति क्या है),उड़ीसा 1993 आदि में लागू किया गया इस नियम के चलते दो अधिक संतानों वाले माता-पिता चुनाव में उम्मीदवारी और पंचायत राज संस्थाओं की स्वायत्त शासन की आधारभूत इकाईयों यथा पंचायती राज संस्थान और स्थानीय नगरीय निकायों में किसी भी पद के लिए अयोयग्य करार दिया है( राजस्थाम में लागू है) इन राज्यों में इस फैसले ने भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपरोधों को प्रोसाहित ही किया हैएक सर्वे के अनुसार इन सिंद्धात की बजह से समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से ज्यादा बदतर हुई है।इसमे जबरिया गर्भपात कन्या शिशुओं का परिस्याग लोगों राजनैतिक आकंक्षाओं की बलि चढती जा रही है। राजनैतिक महत्वकाक्षांओं की पूर्ति के लिए बालिकाओं के प्रति उपेक्षाभाव,पतियों द्वारा पत्नियों का परित्याग कलह और बेटे को ही पैदा करने का दबाब महिलाओं पर पड रहा है

निर्णय लेने की अधिकारी नहीं है महिलाएं

घर में खाना बनाने के लिए जहां84 प्रतिशत महिलाएं स्वयं निर्णय ले सकती है बहीं सामाजिक और रीतिगत मामलों में उन्हें निर्णय लेनेका अधिकार सिर्फ 40 प्रतिशत ही है।समाज में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा महिलाएं अपने पतियों की हिंसा की शिकरा होती है तो 49 प्रतिशत महिलाएं ही पुरूषों के मुकाबलें कार्यशीलहैं।समाजिक दबाब के चलते उनके कानों यह बात बार बार डाली जाती है कि बगैर बेटे को पैदा किये समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिल सकता है।हमें मिलकर इस सामाजिक बुराई से लडना होगा समय के साथ साथ लडके औऱ लड़कियों के बीच के भेद को मिटाना होगा नहीं तो कहीं लड़किया सिर्फ वेश्यालयों मे ही ना पैदा होने लगे और हमारा संभ्रात समाज अपनी ही सोच के चलते सिमट कर ना रह जाये इन हालातो में एक बात जरूर हमें समझ लेनी चाहिए कि .यदि हम बेटियां नहीं चाहेगें तो हमे बहुए भी नसीब नहीं होगीं

"यहां आने से पहले बेटी पूछती है खुदा से  
संसार तूने बनाया, या बनाया है इन्सां ने
मारे वो हमको जैसे, हम उनकी संतान नहीं
डर लग रहा है कभी वापस भेज न दे वो हमें यहां से
कहा फिर उस खुदा ने कि भूल गया है इन्सां
जहां बेटी नहीं है बता वो कौन सा है जहां
वक्त एक ऐसा आएगा, 'औरत' शब्द रह न जाएगा
फिर पूछूंगा इन्सां से, अब तू 'बेटा' लाएगा कहां से"





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कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,

तुम कह देना कोई ख़ास नहीं.

एक दोस्त है कच्चा पक्का सा,एक दोस्त है कच्चा पक्का सा,

एक झूठ है आधा सच्चा सा.एक झूठ है आधा सच्चा सा.

जज़्बात को ढके एक पर्दा बस,जज़्बात को ढके एक पर्दा बस,

एक बहाना है अच्छा अच्छा सा.एक बहाना है अच्छा अच्छा सा.

जीवन का एक ऐसा साथी है,जीवन का एक ऐसा साथी है,

जो दूर हो के पास नहीं.जो दूर हो के पास नहीं.

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,

तुम कह देना कोई ख़ास नहीं ..तुम कह देना कोई ख़ास नहीं ..

हवा का एक सुहाना झोंका है,हवा का एक सुहाना झोंका है

कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा.कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा.

शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले,शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले,

कभी अपना तो कभी बेगानों सा.कभी अपना तो कभी बेगानों सा.

जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र,जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र,

जो समंदर है, पर दिल को प्यास नहीं.जो समंदर है, पर दिल को प्यास नहीं.

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,

तुम कह देना कोई ख़ास नहीं.तुम कह देना कोई ख़ास नहीं.

एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है,एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है,

यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है.यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है.

यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं,यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं,

पर कभी -कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है.

पर कभी -कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है.

यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है,यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है,

पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं.पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं.

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,

तुम कह देना कोई ख़ास नहींतुम कह देना कोई ख़ास नहीं




                                                                                                                               अविनाश ने भेजा है....

Tuesday, June 8, 2010




मज़ा बरसात का चाहो तो इन आंखों में आ बसो
 वो बरसों में बरसती है ये बरसों से बरसती है...

25 साल के आंसूओं की कीमत 25 हजार,









     जिंदगी देने वाले , मरता छोड़ गये,
     अपनापन जताने वाले तन्हा छोड़ गये
     जब पड़ी जरूरत हमें अपने हमसफर की,

    वो जो साथ चलने वाले, रास्ता मोड़ गये

178 लोगों के जुबान से निकला दर्द भी सरकार को नहीं पसीजा पाया

भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद जो फैसला आया है उसने ना कितनी उम्मीदों को मौत दे दी है....25 साल तक न्याय की आस में अपनो को खो जाने का दर्द समटे लोगों की आंखों के आंसूओं का मोल लगा महज 25 हजार...ये भारतीय न्याय प्रणाली....ये नरसंहार के लिए मिलने बाले दंड का स्वरूप अचानक ही दुर्घटना में बदल गया ...वाह....25 साल का समय कम नहीं होता एक पूरी पीढ़ी तैयार हो जाती है ना कितने परिवार इस आस में जी रहे थे कि न्याय की देवी की तराजू में उनके आंसूओं का मोल कुछ तो होगा ....महज 25 हजार के जुर्माने औऱ दो साल की कैद ये सज़ा है मौत के सौदागरों की.....साल दर साल जाने कितनी लड़ाईयों के बाद पीडितों का ये सपना टूट गया है.....25 साल से जहरीली गैस से प्रभावित लोगों की नरक यात्रा आज भी उनकी पीढ़ी झेल रही है।ऐसे में इस फैसले ने त्रासदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे लोगों को जीते जी ही मार डाला है... मामले में मुख्य अभियुक्त वॉरेन एंडरसन आज भी फरार दुनिया के पापा ने उसे भारत को सौपने से इंकार कर दिया है.....एक तरफ इस तथाकथित वैश्विक पापा की एक हुंकार पर बाकी के सारे देशों की पेट गीली होने की नौबत तक आ जाती है ऐसे मैं कभी यह अपराधी सज़ा पा सकेगा इस बात पर भी नचिकेता प्रश्न लगा हुआ है क्या हम कभी इतने शक्तिशाली हो पायेगें कि इस वैश्विक पापा के सामने सीना तान के वारेन नामक इस अपराधी को समर्पण के लिए कह सके ना जाने कब ये समय आयेगा आयेगा या नहीं भी कोई नहीं जानता है 1



यूनियन कार्बाइड़ कार्पोरेशन लिमिटेड़ की स्थापना से लेकर,गैस रिसाव और उसके बाद इस मामले की सुनवाई से लेकर फैसले के दिन तक हर बार लोगों की भावनाओं और उनके विश्वास को छला गया है....और इस फैलसे ने तो अब हमारे वैश्विक पप्पा के लिए एक दरवाजा औऱ खोल दिया है जाहिर सी बात है जब हमारे देश न ही हमारे लोगों को छला तो फिर अमेरिका क्यों चाहेगा इस मामले को आगे बढ़ाने

सरकार है पूरी तरह से जिम्मेदार

25 साल के इस लंबे समय का सबसे कारण सरकार औरयूनियन कार्बाइड कंपनी के बीच 1989 को हुए एक समझौता है इसके तहत कंपनी को दिसंबर 1984 की गैस त्रासदी से जुड़े सभी आपराधिक और नागरिक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया गया था।

अदालत ने आठ में से सात दोषियों को दो-दो साल की सजा सुनाई है और प्रत्येक पर 1,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया जबकि इस मामले में दोषी करार दी गई कंपनी यूनियन कार्बाइड इंडिया पर 5,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया गया। त्रासदी के बाद के शुरूआती वर्षो में सरकार ने कंपनी और उसकी अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पर आपराधिक मामले दर्ज करने की बजाए उसके साथ करार कर उसे हर तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त करदिया। भोपाल गैस ट्रेजडी विक्टिम्स एसोसिएशन' के अनुसार 14-15 फरवरी 1989 को हुए इस करार के तहत यूनियन कार्बाइड के भारत और विदेशी अधिकारियों को 47 करोड़ डॉलर की एवज में हर प्रकार के नागरिक और आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया। इस करार में कहा गया कि कंपनी के खिलाफ सभी आपराधिक मामले खत्म करने के साथ-साथ सरकार इस त्रासदी के कारण भविष्य में होने वाली किसी भी खामी मसलन से उसके अधिकारियों की हर प्रकार के नागरिक और कानूनी उत्तरदायित्व से हिफाजत भी करेगी।जिसे सर्वोच्च न्यायालय अक्टूबर1991 में आंशिक रूप से खारिज कर दिया था।

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Monday, June 7, 2010

बचपन की वो बातें......

1)मछली जल की रानी है,


जीवन उसका पानी है।

हाथ लगाओ डर जायेगी

बाहर निकालो मर जायेगी।



2.) पोशम्पा भाई पोशम्पा,

सौ रुपये की घडी चुराई।

अब तो जेल मे जाना पडेगा,

जेल की रोटी खानी पडेगी,

जेल का पानी पीना पडेगा।

थै थैयाप्पा थुश

मदारी बाबा खुश।



3.) झूठ बोलना पाप है,

नदी किनारे सांप है।

काली माई आयेगी,

तुमको उठा ले जायेगी।



4.) आज सोमवार है,

चूहे को बुखार है।

चूहा गया डाक्टर के पास,

डाक्टर ने लगायी सुई,

चूहा बोला उईईईईई।



5.) आलू-कचालू बेटा कहा गये थे,

बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।

बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,

मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।



6.) तितली उडी, बस मे चढी।

सीट ना मिली,तो रोने लगी।।

driver बोला आजा मेरे पास,

तितली बोली " हट बदमाश

बेटी का एक पत्र अपनी मां के नाम




मेरी प्यारी मां,


मैं खुश हूं और भगवान से प्रार्थना करती हूं कि आप भी खुश होंगी,जब तुम कल ड़ाक्टर के यहां गई तो मुझे लगा जैसे मेरी खैरियत पता करने आई हो फिर तुम्हे मेरे लडकी होने का पता चला , लेकिन मैंने जो सनसनी खेज़ ख़बर सुनी है उससे मैं बैचेन हो गई हूं मुझे बहुत ड़र लग रहा है।मैने पापा को ड़ाक्टर से कहते सुना की वो मुझे इस दुनिया में ही नहीं आना देना चाहते हैं।यह सुनकर तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ मेरे हाथ पैर अभी तक कांप रहे हैं।भला मेरी प्यारी प्यारी कोमलहृदया मां ऐसा कैसे कर सकती है तुम ही बताओ क्या तुम ऐसाकर सकती हो।बस मेरी खातिर यह एक बार कह दो कि ये सब झूठ है सिर्फ एक बार कह दो ना मेरी प्यारी मां।जब तुम ड़ाक्टर के क्लीनिक की तरफ जा रही थी तो मैंने तुम्हारे आंचल को जोर से खीचने का भी प्रयास भी किया लेकिन मेरी हथेलिय़ां इतनी छोटी है कि तुम्हारा आंचल नहीं पकड़ सके।मेरी बांहे इतनी कमजोर हैं मैं इन्हें तुम्हारे गले ड़ालकर तुम्हारा रास्ता भी नहीं रोक सकती हूं।मेरी प्यारी मां तुम जो दवा मुझे मारने के लिए लेना चाहती हो बहुत ही घातक है उससे मेरे पूरे शरीर को बहुत कष्ट मिलेगा.ड़ाक्टर की कैंची मेरेपूसे शरीर को चीड़-फाड़ ड़ालेगी मेरे नाजूक हाथों औक कोमल पैरो को काट ड़ालेगी।आप कैसे यह दृश्य़ देख सकती हो मेरी प्यारी कोमलहृदया मां.मुझे इतने कष्ट में कैसे रहने दे सकती हो।.मैं ये पत्र तुम्हे इसलिए लिख रही हूं कि अभी मैं ठीक से बोल नहीं पा रहीं तुमसे तो अभी मुझे बोलना भी सीखना है,मेरी आवाज भी इतनी उंची नहीं है कि तुम्हें जोर जोर से चिल्ला कर मना करसकूं। मैं तुम्हारी कोख मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर रही लेकिम अब मुझे यह ड़र सुकून से नहीं रहने दे रहा है।मेरी प्यारी मां में इस दुनिया में आना चाहती हूं मैं तुम्हारे आंगन में खेलना चाहती हूं. तुम ही बताओ जब मैं पूरे घर में अपने छोटेछोटे पैरों से छम छम करती शरारत करती तुम्हरी गोद में आउंगी तो क्या तुम्हारा मन मुझे गले से लगा कर चूमने का नहीं करेगामुझे तुम्हारी ममता भरी गोद मैं खेलना है मेरी प्यारी मां।....और हां सुनो तुम मुझे इस दुनिया में आने दो मै तुम पर बोझ नहीं बनूगीं, मेरी चिंता भी नहीं करनी पडेगी मैं .आपकी लाडली थोडे से ही कपडे से काम चला लेगी उतरन पहन कर ही अपने तन को ढक लूगीं मेरी प्यारी मां बस एक बार मुझे अपनी कोख से निकलकर इस दुनिया में आ जाने दो मेरी प्यारी मांमैं आपकी बेटी हूं मां क्या बेटा होता तो आप उसे पाल नहीं लेती पालती ना फिर मुझे क्यों नहीं आने दे रही हो,तुम मेरी चिंता मत करना ना ही मेरे लिए दहेज की मैं अपना खर्चा खुद उठा लूगीं खूब मन लगा पढ़ाई करूंगी और तुम्हारा नाम रोशन करूंगी.बड़ी होकर मैं खुद अपने पैरों पे खड़ी होकर दिखाउंगी.मेरी प्यारी मां मेरी भी ड़ोली सजेगी और हाथों में मेंहदी लगेगी फिर एक दिन आपके आंगन चिड़िया की तरह फुर्र होकर उड जाऊगीं क्या तुम खुद को एक बार मुझे दुल्हन बनते नहीं देखना चाहती हो....बस मेरी प्यारी मां मुझे एक बार जन्म देदो एक बार एस दुनिया में आ जाने दो एक बार मुझे फूल बनकर अपनी बगिया में खिल जाने दो मैं तुम्हारे लिए जीवन भर कृतज्ञ रहूंगी।                    
                                                                                                                   तुम्हारी प्यारी बेटी


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Sunday, June 6, 2010

शादी, समाज और महिलाएं



इन दो घटनाओं पर नजर डाले
पहली घटना है खास समुदाय द्वारा जारी फरमान जिसमें गोत्र में शादी करने के बाद पति पत्नी को अगर जिंदा रहना है तो उन्हें भाई बहन बनना होगा। दूसरी घटना बुलंदशहर की जहां अपनी मर्जी से शादी करने वाले लड़की के खिलाफ समाज ने सजाए मौत का फरमान सुना दिया। मेरा कहने का मतलब आप समझ गए होगे मै बात कर रहा हूं विकसित होने को आतुर भारत में शादी और समाज के बीच झंझावात में फंसे युवा और खासतौर पर महिलाओं की। भारत पुरूष प्रधान देश है लेकिन देश के गौरव को ऊंचा उठाने एवं पुरूषों को समानजनक स्थान तक पहुंचाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आजादी के बाद मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के तहत महिलाओं को पुरूषों की तरह समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारत के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के परिणाम स्वरूप ग्रामीण एवं नगरीय पंचायतों में महिलाओं हेतु एक तिहायी स्थानों को आरक्षित करे उन्हें चूल्हे चौके से बाहर निकाला गया। संविधान का 108वां संविधान संसोधन जिसमें महिलाओं के लिए 33 फीसदी का आरक्षण है भारी बहुमत से पारित हुआ। पिछले 3 चार दशकों से नारी के लिए तरक्की के लिए कई दरवाजें खुले है। लेकिन फिर भी उसकी जिंदगी एक सीमित घेरे में घूमती रही। आज महिलाएं करूणा, त्याग, उदारता, कोमलता आदि गुणों से परिपूर्ण तो है ही साथ ही शारीरिक, मानसिक, राजनैतिक, व्यवसायिक स्तरों पर भी अपनी पहचान दिलाई। बावजूद इसे आज भी महिलाओं का अपने लिए फैसले लेना समाज के लिए चुभने जैसी बात होती है। अपनी मर्जी से शादी करने वाली महिलाएं आज भी समाज के लिए क्रोध का केन्द्र बिंदु होती है।

तस्वीर का दूसरा पहलू
आर्थिक कठिनाईयों से जूझते हुए समाजिक वर्जनाओ और विषमताओं को तोड़ना महिलाओं के लिए आज भी नामुकिन है। भारतीय नारी में अदम्‍य क्षमता और मानसिक परिपक्‍वता के बावजूद वह जिस चौराहें पर खड़ी है उसे चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे और दुर्गम चट्टाने है। राजाराम मोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती तक शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से लेकर पर्दा प्रथा की समाप्ति तक खुली हवा में सांस लेने वाली भारतीय नारी भले ही बाल विवाह, सती प्रथा, देवदासी के जीवन जीने से बच गई हो लेकिन घर की चारदिवारी को लांघ कर अपने लिए समानित जीवन जीने कल्पना करने वाली भारतीय नारी जीवन भर मानिसक तनाव और घुटन महसूस करती है। मल्टीनेशनल कंपनियों में बडे़ पदों पर बैठी हुई महिलाएं हो या फिर खेत खलिहानों में फसल काटने, बोझा ढोने वाले मजदूर, या फिर जेठ की चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे गोद में मासूम बच्चों को बांधे सड़क किनारे पत्थर तोड़नी वाली महिला जिसे सहानुभूति और दया तो मिलती है लेकिन समाज आज भी उने लिए गए फैसले के प्रति करूण नहीं। आज यह पीढ़ी पढ़ी लिखी है स्वतंत्रत है किंतु कहीं न कही दहेज की तेज लपटों में तंदूरों में जलाई जाती है तो कहीं स्कूल कालेज के चौराहों पर बलात्कार का शिकार बनाई जाती है तमाम कानूनी और प्रशासनिक उपायों के बीच आज भी कुटू बाई सती कर दी जाती है। तो तारा को निवस्त्र घुमाया जाता है तो कहीं खंडवा में उसकी नीलामी होती है तो कहीं भुनी नैना साहनी, तो कही शिवानी और मधुमिता हत्या कांड होता है। हर 7 मिनट में किसी महिला से छेड़छाड़ और लूटपात होती है हर 24वें मिनट में यौन शोषण का शिकार होती है। हर 54वें मिनट में बलात्कार का शिकार होती है। हर 102 मिनट में एक महिला दहेज के नाम पर उत्पीड़न की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में हमारे विकसित होने की सारे दभ धरासाई हो जाते है। घर के बाहर निकलते ही भारतीय नारी के दिमाग में एक ही चीज रहती है कि कोई नजर उसे पीछे है उसे हल पल अपने साथ होने वाली दुर्घटना की आशंका न जीने देती है न मरने देती है।

बड़ा मुश्किल है आदमी का पेड़ हो जाना

बड़ा मुश्किल है आदमी का पेड़ हो जाना,
पेड़ की गोद में हजारों घर बसते हैं
बड़ा मुश्किल है आदमी का पेड़ हो जाना ,
बडा मुश्किल है जड़ और चेतन के साथ एक हो जाना,
बड़ा मुश्किल है आदमी का पेंड़ हो जान

पानी,

 
   मैने पापा से पूछा पानी,
पापा ने कहा धरती,
मैने धरती से पूछा पानी ,
धरती ने कहा पेड़,
मैने पेड़ से पूछा पानी
 पेड़ ने कहा हवा
मैने हवा से पूछा पानी
उसने कहा आसमान
मैने आसमान से पूछा
पानी उसने कहा किसान
 मैने किसान से पूछा पानी
उसकी आंखों से दो बूंद उतर आये
क्या हम पानी का अर्थ समझ पाये...

उस पगली लड़की के बिन

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
                                             तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
                                           और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की एक दिन मेरे लिए भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है



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Saturday, June 5, 2010

चित्रकार

उसने कहा लाल...
और मैं लाल हो गया ...
उसने कहा पीला ...और मैं पीला हो गया ....
वह कहती रही सफेद, हरा, नीला, धामनी, और
मैं हर रंग मे रंगता रहा ...
वो तो मुझे बाद में समझ आया वो एक कुशल चित्रकार थी
जो अपने फायदे के रंग लेकर एक दिन कहीं उड़ गई....

इलाज....

सुनो मुन्ना को बहुत तेज़ बुखार है कहीं से दवा-दारू का इंतिजाम करों,
कहां से करू अभी तो फूटी कौड़ी भी नहीं है मेरे पास
,जाकर मालिक से ही क्यों नहीं मांग लाते हो ,
अभी तो लाया था बडी मुश्किल से गाली देने के बाद 100 रू दिये थे फिर कैसे जाउ
तो क्या हमारे बेटे के नसीब में इलाज भी नहीं लिखा है ,ठीक एक बार फिर जाता हूं मांग देखता हूं.... बाहर तो ऐसा लगता जैसे आसमान ही फट गया हैं......
फिर आ गया साले रोज रोज पैसा मांगते हुए शर्म नहीं आती देख नहीं रहा है अंदर वीआईपी लोग हैं पार्टी चल रही है और तू अपना मनहूस चेहरा लेकर फिर आ गया चल भाग यहां से ......
और रामू निकाल दिया गया घर से ......
घर लौट कर देखा तो बेटे ने तेज बुखार में ही दम तोड़ दिया ...
बाहर बारिश थम चुकी थी...लेकिम रामू की आंखों में कुछ उतर आया था....