।। ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः। ॐ।।
''हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।''- गीता
सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था।
यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे।
श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी से अधर्म को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित किया। समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे।
उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना कीश्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
कर्म योगी कृष्ण : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। गीता में कर्म बंधन से मुक्ति के साधन बताएँ हैं। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्ति आवश्यक है।
भगवान कृष्ण इस दुनिया में सबसे आधुनिक विचारों वाले भगवान कहे जाएं तो भी गलत नहीं होगा। कृष्ण ने पूरे जीवन ऐसे समाज की रचना पर जोर दिया जो आधुनिक और खुली सोच वाली हो। उन्होंने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबके लिए ऐसे विचार और मंत्र दिए जो आज भी आधुनिक श्रेणी के ही हैं। समाज में जिस तरह की सोच आज भी विकसित नहीं हो पाई कृष्ण ने वह सोच आज से पांच हजार साल पहले दी थी और उस दौर में उन पर अमल भी किया।
आइए जन्माष्टमी के मौके पर जानते हैं पांच हजार साल पहले के आधुनिक विचार वाले कृष्ण को।
- आज के युग में औरतों को पुरुषों से निचले दर्जे पर रखा जाता है। हम कहने को आधुनिक हैं लेकिन हमारे समाज में आज भी महिलाओं को लेकर सोच नहीं बदली। कृष्ण ने उस दौर में महिलाओं को समान अधिकार, उनकी पसंद से विवाह और लड़कियों को परिवार में समान अधिकार का संदेश दिया था।
- आज के समाज में अभी भी यह मान्यता है कि एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। कृष्ण ने द्रौपदी को अपनी सखी, मित्र ही माना और पूरे दिल से उस रिश्ते को निभाया भी। द्रौपदी से कृष्ण की मित्रता को देखते हुए द्रौपदी के पिता द्रुपद ने उन्हें द्रौपदी से विवाह का प्रस्ताव भी दिया लेकिन कृष्ण ने इनकार किया और हमेशा अपनी मित्रता निभाई।
- जात-पात के चक्रव्यूह में आज भी हमारा समाज जकड़ा है लेकिन कृष्ण ने लगभग सभी वर्गों को पूरा सम्मान दिया। उनके अधिकतर मित्र नीची जाति के ही थे, जिनके लिए वे माखन चुराया करते थे।
- परिवार की लड़ाई में लड़के-लड़कियों की पसंद को महत्व नहीं दिया जाता लेकिन कृष्ण ने पांच हजार साल पहले ही इस बात को नकार दिया। दुर्योधन उनका शत्रु था और उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। न ही दुर्योधन कृष्ण को पसंद करता था, फिर भी जब कृष्ण के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का हरण कर उससे विवाह किया तो कृष्ण ने उसे स्वीकार किया। दुर्योधन भी नाराज था और युद्ध के लिए तैयार था लेकिन कृष्ण ने उसे समझाया कि हमारी दुश्मनी अपनी जगह है लेकिन इसमें हमें बच्चों के प्रेम को नहीं तोडऩा चाहिए।
- बलात्कार पीडि़त लड़कियों को आज भी समाज में सम्मान नहीं मिलता लेकिन कृष्ण ने 16100 ऐसी लड़कियों को जरासंघ के आत्याचारों से मुक्ति दिलाई और अपनी पत्नी बनाया जो बलात्कार पीडि़ता थीं और उनके परिवारों ने ही उन्हें अपनाने से मना कर दिया था।
यानी खुद को या कृष्ण को समर्पित होने का अर्थ है विश्व को (समाज को?) समर्पित होना। यानी खुद को समर्पित होना है तो पहले खुद को विश्वाकार बनाना, मानना पड़ेगा। एक बार बन, मान गए तो एक ओर अहं ब्रह्मस्मि का मर्म समझ में आ जाता है तो दूसरी और कृष्ण के तेजस्वी, आपातत: निर्लक्ष्य पर सतत कर्मपरायण जीवन का और फल पर अधिकार जताए बिना कर्मशील गीता-दर्शन का मर्म भी समझ में आ जाता है। पर खुद को विश्वाकार समझना ही तो कठिन है। इसलिए तो कहते हैं कि कृष्ण बनना ही आसान कहां है?
Tuesday, August 31, 2010
कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥
तोर अस जोड़ी हो ललना , मोरे अस जोड़ी
कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना मे बिहाव मोरे ललना ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
फागुन महीना मे बिहाव मोर ललना ॥
कोरवन पाइ–पाइ भँवर गिंजारे ।
खोरवन पाइ –पाइ भंवर गिंजारे ।
भँवर गिंजारे हो ललना , भँवर गिंजारे ।
पर्रा मे लगिंन लगाय मोरे ललना ॥
कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना मे बिहाव मोरे ललना ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
फागुन महीना मे बिहाव मोर ललना ॥
कोरवन पाइ–पाइ भँवर गिंजारे ।
खोरवन पाइ –पाइ भंवर गिंजारे ।
भँवर गिंजारे हो ललना , भँवर गिंजारे ।
पर्रा मे लगिंन लगाय मोरे ललना ॥
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