अभी अभी ......


Monday, December 6, 2010

ये परदा हसता है...

सिनमाई परदा बहुत कुछ कहता है...मसलन ये ना सिर्फ मंनोरंजन एक माध्यम है  बल्कि अभिव्यक्ति का एक हस्ताक्षर भी है.. इस माध्यम से अभिव्यक्ति का एक सशक्त हस्ताक्षर है..हास्य। सिनमाई परदें पर एक्शन .से भी ज्यादा लोगो हास्य को स्वीकार किया है...।यही कारण  साल भर में रिलीज होनेवाली फिल्मो में ज्यादातर फिल्म हास्य प्रधान होती हैं।..ये फिल्में लोगों केबीच ज्यादा यादगार तो होती ही हैं ज्यादा से ज्यादा याद भी की जातीहैं यही कारण है कि हर कलाकार पर्दे पर एक हास्य औरयादगार भूमिका निभाने के लिए लालयित रहता हैं। भारतीय परिवेश में उन फिल्मों को सफल माना जाता है जो
दर्शकों को हंसने पर मजबूर कर दें।दसअसल आज का दर्शक मल्टीप्लेक्स कल्चर में एक मोटीरकम खर्च कर विशुद्ध मंनोरंजन  की उम्मीद करता है...।और उसका ये मंनोरंजन पूरा होता है हास्य फिल्मो सें। वैसे हास्य प्रधान फिल्मों हमेशा ही सराहा गया है...फिर बातचाहे चलती का नाम गाडी से हो या फिर मुन्ना भाई हो....।कॉमेडी फिल्मों की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी की उलझनों के करीब पाते हैं।जो फिल्में हमारी जिंदगी के बीच जितनी करीब होती हैं वो उतनी सफल हो पातीहैं। किशोर कुमार की हाफ टिकट,कमल हसन की पुष्पक और चाची चार सौ बीस..से लेकर पंकज अडवाणी की अनरिलीज्ड उर्फ प्रोफेसर एक मिशाल हैं लोगों के दिलों में घर कर जाने और फिल्म इतिहास मेंमील का पत्थर साबित होने में...। गोलमाल में जिस तरह से जहीन हास्य को जिदंगी से जुडे किसी प्रगतिशील मूल्य से जोडागया है वह अपने आप में
अमूल्य हैं...।ऋदि दा की रिपीट फिल्मों में गोलमाल एक मील कापत्थर है....।इस फिल्म के लिए अमोल पालेकर को बेस्ट एक्टर का फिल्म फेयर का अवार्ड दिया गया था...।१९७९ में आई गोलमाल के बाद १९८२ की अंगूर..को फिल्मों में शेक्सपीयर का आगमन माना जाता है...इस फिल्म में गुलजार साहब
ने शेक्सपीयर के नाटक कामेडी ऑफ एरर्स को क्याखूब तरीके से हिंदुस्तानी लिबास पहनाया है...। वहीं चलती का नाम गाडी(१९८५) में हिंदी सिनेमा के आलराउंडर किशोर कुमार और दोनो भाईयों दादा मुनि और अनुप की बेमिशाल जोडी की धरोधऱ हैं। गोल्डन फिफ्टी की यह एक मशहूर कामेडी फिल्म है....।वहीं १९८१ में आई चश्मे बदूर अपने समय की बेहतरीन फिल्म है जिसकी खाम बात इस फिल्म में अपने समय और परिवेश में रचा बसा हास्य हैं।इसके कई संवादों में उस समय की कालेज लाइफ का कोई ना कोई संदर्भ जरूर है...।तो १९८३ मेंहिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे  बडीकेल्ट क्लासिक है जाने भीदो यारो।मात्र कामेडी ना होकर एक स्याह रंग लिए यह फिल्म विकास की अंधी दौड में शामिल लिबरल हिंदुस्तान की जीती जागती मिशाल हैं।२००६ में आई खोसला का घोंसला दिल्ली के मिडिल क्लास तबका पेशा लोगों की ऐसीकहानी है
जो कहीं कहीं हमारी जिंदगी के कुछ कतरन उधार लेकर बनाई गई है। निर्देशक दिबाकर मुखर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मार्डन कल्ट कही जाने वाली यह हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश दा ,बासु चर्टजी,और संई पराजंपे की परंपरा को आगे बढाती हैं।तो वहीं२००६ की ही केमिकल लोटा वाली फिल्म लगे
रहो मुन्ना भाई...एक ऐसा हिंदुस्तानी पब्लिक मेल है जिसने लोगों के दिलो में ही नहीं बाद में मुस्कुराने को मजबूर कर दिया।एक मौलिक कहानी के साथ साथ इस फिल्म में कई प्रांसगिक संदेश भी हैं..जो हमें कदम कदम पर सोचने को मजबूर करते हैं।.....

Thursday, December 2, 2010

मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन

तेग मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो शाहिद
बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा.....?



एक तरफ आंसूओं से डबडबाई आंखे......पिछले २५ सालों के जख्मों को महसूस कर रही होगीं....तो दूसरी तरफ सत्तासीन कहीं दूर शादी के जश्न मे डूबे तमाम लोग........ये दो चेहरे हैं एक हैं अपने हक के लिए लड रहे  उन मासूम लोगों का जिन्होनें अपने  जीवन का सब कुछ लुटा दिया है..... दूसरा चेहरा
है....उन सफेदपोशों का जिन्होनें कुछ दिनों पहले ही कोर्ट के फैसले को लेकर हाय तौबा की थी............कुछ महीने ही बीतें है लेकिन अब इन सफेदपोशों के लिए हजारों लोगों के आंसूओं का मोल शायद ही कुछ बचा
हो.....कभी राज्य और कभी केंद्र के पालों के बीच झूलते ये बेबस ना जाने कितनी बार छले गये हैं....इनके लिए आज  वो रात उतनी भयावह और डरावनी नहीं जितनी कि इन नेताओ की  बातें हैं.......हर साल भोपाल गैस त्रासदी के नाम पर हो रहे पाखंड के बीच फंसी जनता को इंतजार है तो इस बात का किआखिर कब
उन्हें सही न्याय मिल पायेगा....लंबी लडाई के बाद जिन्हें अगर कुछ मिला भी तो किसी मजाक से कम नहीं था...........जिन लोगों को मुआवजा मिला और जितना मिला यदि प्रति व्यक्ति हिसाब लगाया जाया तो मौत के इस तांडव की कीमत महज ५ रू दिन है......ये मलहम है उन हुक्मरानों का जिन्होंनें इन अभागे जिंदा बच गये लोगों की कीमत लगाई......।शुरूआती समय में यह राशि तय की गई थी महज कुछ हजार जानों औऱ लाखों के घायलों के लिए जिस बांटा गया कई गुना ज्यादा  लोगों के बीच......। पर हालात अब भी नहीं बदलें हैं....लोगों के बीच अपनों को खोने का दुख आज भी उतना ही ताजा है......आज भी लोग जब उन गलियों से गुजरते हैं तो बिछडों की यादे बरवस ही उन्हें रूला जाती हैं.....यह भोपाल की बिडंवना है कि भोपाल गैस कांड की बरसी पर
प्रदेश के तमाम जिम्मेदाराना लोग दूर कहीं....सफेदपोशों के माफिख जीहुजूरी में लगें होगे.......कोई मातहत को खुश करने प्लेट लिये दौडा जा रहा होगा तो कोई.....किसी के लिए शरबत का इंतजाम करने की भागमभागम में
लगा होगा.....ये वही लोग हैं जो कुछ दिन पहले ही भोपाल गैस कांड पर आये फैसले को न्याय की बलिवेदी पर इन मरहूम आत्माओं की आत्महत्या मान रहे थे....और आज जब भोपाल में तमाम जिंदा और चलती फिरती लाशें अपनो को याद कर रही होगीं.....तो ये नदारत होगें....।२६ सालों का दर्द आज भी इनके सीने में उसी रफ्तार से दौड रहा है ....यह अलग बात है कि इन सवा पांच लाख लोगा का दर्द सरकार और उनके हुक्मरानो के लिए महज एक मंहगी दुर्घटना के बदले मे निकले धुँए के आलावा और कुछ भी नहीं है...तब से लेकर अब तक देश में आठ बार प्रधानमंत्री की कुर्सी बदली, मध्य प्रदेश में आठ नए मुख्यमंत्री बने ......लेकिन फिर भी  इन बड़े नेताओं को कभी भी यह नहीं लगा कि भोपाल में जो घोर अन्याय हुआ है, उसका प्रायश्चित होना चाहिए....। आज   इस नरक यात्रा की २६ वी वर्षगांठ है....और एक बार इन नरक यात्री के साथ है तो केवल उनके प्रियजनों की यादें और उनके आंसू....और एक बार फिर खत्म ना होने वाला लंबा इतंजार......ठीक इसी वक्त बाबा धरणीधर याद आते हैं...
"...हर जिस्म जहर हो गया एक दिन
मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन
फर्क था न लाश को जात पांत का
नस्ल रंग आज सब साथ साथ था
हिंदू का हाथ थामते मुस्लिम का हाथ था
जां जहाँ था मौत के हाथ था...
हर जर्रा शरर हो गया भोपाल एक दिन
मुर्दों का शहर हो गया भोपाल एक दिन.."


Wednesday, November 24, 2010

सुशासन का जनादेश


बिहार में संपन्न हुए चुनाव  शत-प्रतिशत शांति और निष्पक्ष चुनाव हुए इसमें कोई दो राय नहीं है।लालू के 15 सालों के विकास की गाथा के सामने 5 सालों का विकास कमाल कर गया....।इसमें कोई दो राय नहीं है कि नीतीश कुमार की विकास लहर के सामने लालू यादव और रामविलास पासवान के गठबंधन की धज्जियां उड गईं।इसे जनमानस की अभिव्यक्ति मानने के आलावा किसी के पास कोई चारा ही नहीं बचा है।नीतीश को सबसे ज्यादा फायदा ज्यादा से ज्यादा वोटिंग होने का मिला है पिछले पांच सालों में जो विकास की राह उन्होनें बिहार में बनाई है उसी का परिणाम रहा है कि लोगों ने बढ चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया।महिलाओं की लंबी लंबी कतारे एक नये सामाजिक परिवर्तन की कहानी कह रहे हैं।पूरे चुनाव पर आंतक का ख़तरा मंडराता रहा ....बावजूद इसके मतदान का प्रतिशत इस बात का सूचक रहा कि भारत के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक...विकास की कहानी बंया कर रहा है।....बिहार के चुनाव परिणाम  इस बात का संकेत है कि प्रदेश में लंबे समय से बनी राजनीति असामान्यता अब स्वाभाविक समान्यता की ओर है...और इस माहौल में बदनाम रहे बिहार का हर व्यक्यि बेवाकी से अपनी बात सामने रख सकता है। खुलकर अपने राजनैतिक पक्ष बता सकता है। इस बदले हुए माहौल का परिणाम है कि पिछले चुनावों में जो मतदान का प्रतिशत 46 था इस बार बढकर 52 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया.और सबसे बडी बात इस प्रतिशत में महिलाओ के मतदान का प्रतिशत 54 फीसदी से भी ज्यादा रहा है।जबकि पिछले मतदान में महिलाओ का प्रतिशत महज 44 फीसदी है।पिछले 5 सालों का विश्लेषण करें तो नीतीश की कार्यशैली से इस बात का स्पष्ट अंदाजा लगाया जा सकता है....इन सालों में बिहार से भययुक्त प्रदेश में राजनैतिक माहौल भयमुक्त रहा है।अपराधियों पर हुई लागातार कार्यवाईयों ने लोगों के मन में बसे खौफ को दूर किया है यही कारण है इस बार के चुनाव में तमाम संभवनाओं केबीच मतदान शांतिपूर्ण हुए..यदि बात की जाये लालू और नीतीश के बीच तो बिहार में पिछले 5 सालों में हुए कामों की तुलना में लोगों केपास नीतीश के आलावा और कोई आदर्श व्यक्तित्व नहीं है। बल्कि यह कहा जाये की प्रदेश कीजनता को इन्ही दोनों में से  किसी एक चुना जाना था तो अतिश्योक्ति नहीं है।राबडी लालू के  अविकास.या यूंकहा जाये कि कुविकास के सामने नीतीश का चेहरा ज्यादा प्रभाव शाली रहा है।2005 के दोनो चुनावों में में नजर डाले तो रामविलास पासवान को मई 2005 के पहले चुनाव में लालू विरोधियों का ही मत मिला...लेकिन सरकार बनने में किया अंडगां डालना उन्हे मंहगा पडा उसी साल अक्टूबर नंबवर में इसी वजह से उनके उम्मीदवार बुरी तरह से पिट गये....दूसरी तरफ इसका सीधा फायदा जद यू भाजपा गठजोड़ को मिला उन्होने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।कुलमिलाकर  कहा जा सकता है कि यह जीत नीतीश कुमार की कुशल राजनीतिक समझ और विकास का रास्ता तय करने की दिशा जाता है।

Thursday, November 18, 2010

अमेरिका को अधिक लाभ


ऐसा लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा आशा से अधिक सफल रही, क्योंकि उनकी यात्रा से बहुत आशाएं किसी ने नहीं लगा रखी थीं। भारत सरकार को भी पता नहीं था कि सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर वे क्या कहेंगे या भारत को वे विश्व परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता देंगे या नहीं।

यह भी ठीक से पता नहीं था कि आतंकवाद पर पाकिस्तान की भूमिका के बारे में वे भारत में अपना मुंह खोलेंगे या नहीं। ऐसा नहीं लगता था कि वे राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की बराबरी कर पाएंगे, लेकिन भारत की संसद में उन्होंने जो जोशीला भाषण दिया,

उन्होंने और उनकी पत्नी मिशेल ने सार्वजनिक हेल-मेल की जो कोशिश की और भारत को उदीयमान नहीं, उदित महाशक्ति घोषित किया आदि ने ऐसा मनमोहक वातावरण बना दिया कि उनकी यात्रा से भारत गदगद हो गया। लेकिन यदि जरा गहरे उतरें तो मालूम पड़ेगा कि इस यात्रा से अधिक लाभ अमेरिका को हुआ है।

सबसे पहले सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता को लें। क्या अमेरिका के कहने से भारत को स्थायी सदस्यता मिल जाएगी? क्या संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका की कोई प्रांतीय विधानसभा है? संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका की हैसियत वही है, जो अन्य वीटोधारी सदस्यों की है।

जब तक पांचों वीटोधारी सदस्य एकमत से भारत का समर्थन नहीं करेंगे, भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बन सकता। अभी भी चीन और रूस तो इस मुद्दे पर हकला रहे हैं। दो टूक राय जाहिर नहीं कर रहे हैं।

ओबामा ने भी भारत के बारे में गोलमाल शब्दावली का प्रयोग किया है। उन्होंने कहा है कि ‘आगे आने वाले वर्षो में मैं ऐसी बदली हुई सुरक्षा परिषद देखना चाहता हूं, जिसमें भारत स्थायी सदस्य बन सके।’ भारत के मुकाबले इसी मुद्दे पर मार्च 2005 में बुश की विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने जापान के बारे में कहा था कि अमेरिका ‘संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में जापान की स्थायी सदस्यता का स्पष्ट समर्थन करता है।’

यहां असली प्रश्न यह है कि संयुक्त राष्ट्र का सुधार कब होगा और कैसे होगा और उसमें भारत की स्थायी सीट के लिए पता नहीं क्या-क्या अड़ंगे लगेंगे? चीन और पाक तो अभी से टांग खींचने में लगे हुए हैं। चीन के वुहान में भारत, रूस, चीन के सम्मेलन में जो संयुक्त विज्ञप्ति जारी हुई, उसमें भी इस मुद्दे पर कन्नी काट ली गई है।

जहां तक अमेरिका का सवाल है, उसके उच्च अधिकारियों ने ओबामा की घोषणा के पहले और बाद में भी यह साफ-साफ बता दिया है कि यदि भारत जैसे देशों को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिलेगी तो भी उन्हें वीटो का अधिकार नहीं मिलेगा। ऐसी नख-दंतहीन सीट लेकर भारत क्या करेगा?

ओबामा की घोषणा से भारत का दावा जरूर मजबूत हुआ है, लेकिन जो निचुड़ा हुआ नींबू अमेरिका भारत को थमाना चाहता है, वह भारत के किस काम का है? अमेरिका ने पिछले कुछ हफ्तों में यह भी साफ-साफ कहा है कि वह अगले दो साल तक सुरक्षा परिषद में भारत के आचरण पर निगरानी रखेगा कि वह अमेरिका का कहां तक समर्थन करेगा।

यह काफी अपमानजनक शर्त है। इसी प्रकार भारत को वास्तविक महाशक्ति कह देना अतिथि की विनम्रता ही है। शिष्टाचारभर है। वरना क्या वजह है कि म्यांमार और ईरान पर ओबामा भारत को उपदेश दे गए और भारत ने इराक, फलस्तीन, ईरान और अफगानिस्तान में की जा रही अमेरिकी ज्यादतियों के बारे में मुंह भी नहीं खोला?

अभी भारत विश्वस्तरीय महाशक्ति तो क्या, दक्षिण एशिया की महाशक्ति भी नहीं बना है। यदि बना होता तो वह खुद से पूछता कि अफगानिस्तान किसकी जिम्मेदारी है? अमेरिका की या भारत की? यदि भारत सचमुच विश्व शक्ति होता तो क्या अभी तक वह अफगानिस्तान को लंगड़ाते रहने देता? अमेरिका की भोंदू नीतियों के चलते वहां तालिबान को पनपने देता? आश्चर्य है हमारी सरकार ने ईरान और म्यांमार के बारे में हमारी व्यावहारिक नीति से ओबामा को परिचित क्यों नहीं करवाया?

पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवाद के विरुद्ध बोलकर और ताज होटल में ठहरकर ओबामा ने स्पष्ट संदेश दिया है। लेकिन किसको दिया है? यह पाकिस्तान को नहीं दिया है। अमेरिकी जनता को दिया है। ताज होटल और यहूदी घर में मरे अमेरिकी नागरिकों के जरिये ओबामा ने अमेरिकी जनता की नब्ज पर अंगुली रखी है।

इससे पाकिस्तान को क्या सबक मिला? ओबामा ने जो दिल्ली में कहा, वह दर्जनोंबार वॉशिंगटन में कह चुके हैं। पाक को सबक तो तब मिलता, जब वे उसकी फौज और आईएसआई का हुक्का-पानी बंद करने की घोषणा करते। इन दोनों संस्थाओं ने पाकिस्तानी लोकतंत्र का गला घोंट रखा है और ये ही दो संस्थाएं तालिबान की अम्मा हैं।

उनकी भारत यात्रा ने पाकिस्तान के साथ अमेरिका के संबंधों में रत्तीभर भी फर्क नहीं डाला है। जहां तक भारत को परमाणु शक्ति का दर्जा देने का सवाल है, उसमें भी भारत को कौन-सी विशिष्टता मिली है। जैसे इजरायल और पाकिस्तान, वैसा भारत। यानी अब पांच परमाणु शक्तियां भारत से नहीं, इजरायल और पाकिस्तान से भी खुलकर बात करेंगी।

यह ठीक है कि भारत की तरह इजरायल और पाकिस्तान ने भी परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए थे, लेकिन क्या इनके परमाणु हथियार अवैध तरीके से नहीं बनाए गए हैं? क्या ये उद्दंड राष्ट्र (रोग स्टेट्स) की श्रेणी में नहीं हैं? भारत को इनकी पंगत में बिठाना कहां तक उचित है?

ओबामा ने भारत को दोहरी तकनीक देने और परमाणु संबंधी चार अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सदस्यता दिलाने की बात कहकर प्रसन्न जरूर किया है, लेकिन इस सुखद प्रदाय में दो पेंच हैं। एक तो क्या यह सुविधा इजरायल और पाकिस्तान को भी मिलेगी? दूसरा इससे भारत से ज्यादा लाभ उन देशों का होगा, जो अपना परमाणु माल भारत को बेचेंगे।

इसमें संदेह नहीं है कि ओबामा की इस भारत यात्रा से अमेरिका और भारत के द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं। ओबामा और उनकी पत्नी ने जनसंपर्क के सभी गुर भारत में आजमाए हैं। बच्चों के साथ नाचने, हिंदी के कुछ शब्द बोलने, गांधी, विवेकानंद, आंबेडकर आदि का स्मरण करने और भारत के नेता और अन्य लोगों के साथ अनौपचारिक हेल-मेल ने ओबामा की यात्रा को अत्यंत प्रभावपूर्ण और चमत्कारी जरूर बनाया है, लेकिन इस एक यात्रा से उन्होंने अपने दो शिकार एक साथ किए हैं।

एक तो लगभग 20 व्यापारिक समझौते किए, जिससे अमेरिका को एक ही झटके में लगभग 45 हजार करोड़ के सौदे मिल गए। इससे भी बड़ा दूसरा फायदा यह हुआ कि इन सौदों से पैदा होने वाली ५क् हजार नई नौकरियां ओबामा के लिए नकद चेक सिद्ध होंगी।

वे इसे अपनी घरेलू राजनीति में भुनाएंगे। अमेरिकी अखबार भी इसे ही ओबामा की सबसे बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। उनकी भारत यात्रा को अमेरिकी अखबार अन्य तीन देशों की यात्रा के मुकाबले बेजोड़ बता रहे हैं, क्योंकि अमेरिका जैसे पूंजीवादी राष्ट्र में डॉलरानंद ही ब्रमानंद माना जाता है। उन अखबारों का मानना यह भी है कि ओबामा ने भारत को शब्दों की चाशनी चटाई है, जबकि अमेरिका के लिए वे सगुण-साकार मक्खन बिलो लाए हैं

Tuesday, November 16, 2010

टीवी और बच्चें

पिछले दिनों एक बडा कडवा अनुभव हुआ......किसी अध्ययन को बडे गौर से पढने के बाद ये समझ आया कि कम उम्र में अपराधों की संख्या लगातार बढती जारही है। थोडा गौर करें कि आखिर क्यो....? पिछले कई दशकों में किशोर उम्र के लडके लडकियों पर हुए अध्ययन बतातें हैं टीवी पर आने वाले हिंसक कार्यक्रमों का उन परघातक असर पडता है हिंसक छवियों का टीनएजर्स पर प्रभाव इस तरह होता कि वे उसकी चपेट में आने से बच नही सकते हैं। ज्यादातक कार्यक्रमो में स्त्री को एक निरीह प्राणी की तरह दिखाया जाता है।लडकियों के मन  में भय पैदा किया होता है। उन्हे लगता है कि उनके इर्द गिर्द का समाज बहुत ही दूषित है उनके मन में समाज के लिए नक्रारत्मक छवि बन जाती है।तो दूसरी तरफ कार्टून भी बच्चों के मन मस्तिष्क पर गलत प्रभाव डाल रहे हैं.....जहां एक और उनकी भाषा शैली पर गलत प्रभाव पडता है वहीं दूसरी ओर स्टंट दिखाने वाले कई धारावाहिकों और उनके करामाती चरित्र बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे होते हैं।उन्हे लगता है कि वे भी इतने ही ताकतवर और बलशाली हैं।

Sunday, October 10, 2010

कैसे हो गए हैं हम और हमारा देश

कैसा होता जा रहा है अपना देश और कैसे हो गए हैं अपने देश के लोग। भारत रूपी समाज में कोई ऐसा समूह नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पैर नहीं जमा रखे हों। किसी भी वर्ग पर आंख मूंद कर विश्‍वास करना दूभर हो गया है। पहले तो राजनीति बदनाम हुई, फिर पुलिस प्रशासन। पर अब कार्यपालिका, न्यायपालिका, खेल-क्रिकेट, हॉकी, गैर सरकारी/राजनीतिक संगठन, यहां तक धार्मिक संगठन भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे हैं।...तो क्या भ्रष्टाचार का वर्चस्व चारों तरफ इसी तरह बढ़ता रहेगा ? और क्या एक दिन भ्रष्टाचार का, आचार पर पूरी तरह से अधिपत्य हो जाएगा? तब क्या भ्रष्ट होना योग्यता होगी और ईमानदार होना अयोग्यता? यानी एक पुराने गाने की वह पंक्ति- एक दिन ऐसा कलयुग आयेगा, हंस चुगेगा दाना-तिनका, कौआ मोती खायेगा-सार्थक हो जाएगी। हम सब भ्रष्टाचार के दलदल में धंसते चले जाएंगे और सब एक-दूसरे को ठगने-लूटने की फिराक में रहेंगे। धर्म के स्थान में अधर्म होगा और साधु-संतो के स्थान पर पाखंडी। किसी को दूसरे के लिए सोचने की जरूरत नहीं होगी। स्वार्थ सबसे बड़ी नैतिकता होगी। घर के बूढ़े-बुजुर्ग जब काम करने में असर्थ हो जाएंगे तो उन्हें मरने के लिए किसी विराने में छोड़ दिया जाएगा। रिश्‍ते बस नाम और स्वार्थ के लिए होंगे। अंधी वासना के आगे किसी तरह के रिश्‍ते कोई मायने नहीं रखेंगे। लोगों को पूरी आज़ादी होगी-किसी भी तरह के कुकर्म और भ्रष्टाचार करने की।....कितना अच्छा होगा न!, हम तो ऐसा ही चाहते हैं न!

क्या आप ऐसा नहीं चाहते। तो क्या आप केवल खुद ही भ्रष्ट बने रहना चाहते हैं और यह कि शेष लोग आपको ईमानदार समझते रहें। ताकि आपको अन्य लोगों से कोई खतरा नहीं हो। भले ही अन्य लोगों के हक मारने में आप उस्ताद हों।....चुप क्यों हो गए। बंधुवर कहने और आचारण में लाने में बहुत फर्क होता है। आप दूसरे से जिस आचरण की अपेक्षा रखते हैं, वहीं आचरण आप खुद करने से क्यों कतराते हैं। इसलिए कि इसमें भौतिक फायदा कम और मेहनत ज्यादा है। सादगी ज्यादा और ऐयाशी कम है। अब आपको लगेगा कि यह लेखक हमें उपदेश देने की कोशिश कर रहा है। यह खुद कितना ईमानदार है, जो सबसे ऐसे सवाल कर रहा है? यदि आपके मन में यह सवाल उठा तो बुरा न मानें-बल्कि खुद को किसी न किसी स्तर के भ्रष्टचार का समर्थक मान लें। यदि आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो निश्चित तौर पर समझ लें कि आपके अंदर भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है, जिसके दुष्प्रभाव से इस समाज कोई अन्य नहीं बचा सकता।

यानी, इसी तरह से हम भ्रष्टाचार के गुलाम होते जाएंगे और एक दिन हमारे समाज पर भ्रष्टाचार का राज होगा, और जो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचारी होंगे वही इस समाज पर राज करेंगे।....वर्तमान में भ्रष्टाचार के प्रति भारत रूपी समाज के शासक, प्रशासक और जनता की जैसी प्रतिक्रिया है, उसे देखकर तो भ्रष्ट भारतीय समाज की कल्पना करना मुश्किल नहीं लगता।....

....तो क्या वाकई में हम ऐसा ही चाहते हैं ? प्रतिदिन के अखबार, न्यूज चैनलों के बुलेटिन भ्रष्टाचार की खबरों से जो भरे रहते हैं, उन्हें देखकर क्या आपको मजा आता है? अफसोस नहीं होता? यदि होता है तो क्यों नहीं इसका प्रतिकार करते हैं। कहेंगे आप अकेले क्या कर सकते हैं। आप खुद को तो भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते हैं। कोई अनैतिकता, बेईमानी, कर्तव्यविमुखता छोटी नहीं होती है, उसी को छोड़कर आप भ्रष्टाचार का प्रतिकार कर सकते हैं। सच का दामन थाम कर हो सकता है, कुछ दिनों आपको थोड़ी दिक्कत हो, पर प्रतिकार इतना आसान नहीं होता, उसके लिए दिक्कत सहना ही पड़ेगा। ऐसा करना एक आंदोलन करने जैसा ही है। यदि ऐसा ज्यादातर लोग करने लगे तो कल्पना कीजिए क्या अपने समाज में भ्रष्टाचार का वर्चस्व कभी जम पायेगा....नहीं न। तो फिर आप किस दिशा में जाना चाहते हैं भ्रष्टाचार की ओर या आचार की ओर। समाज के ऐसे किसी नेता, कार्यकर्ता, प्रशासक, कर्मचारी, व्यापारी, एजेंट से कोई ऐसा काम नहीं करवाये, जिसके लिए वह भ्रष्ट तरीके अपनाता हो। घूस लेने व देने वालों का प्रतिकार करें। आपकी नजर में खराब नेताओं को किसी भी शर्त या लालच या डर में वोट नहीं दें।

क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यह सवाल भी काफी महत्वपूर्ण है। पिछले साठ सालों की बेफिक्र जीवन ने हमारे दिल-दिमाग पर कई तरह की बुराइयों के परत जमा दिये हैं और वे हमारे लिए आम बात हो चुकी हैं। ऐसे में उन बुराइयों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। ऐसे में, इसके दंश झेल रहे लोगों पर नजर डालें। लंबी लाइन में ईमानदारी से घंटों खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करने वाले उन साधारण आदमी को देखें, जिनकी बारी का हक मारकर आप अपनी पहुंच और पहचान के बल पर लाइन तोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। आप कहेंगे, यह सब नहीं करने से तो समय पर आपका कोई काम ही नहीं होगा, फिर तो आप समाज में पीछे रह जाएंगे।...तो क्या लाइन में खड़े लोग को आगे नहीं बढ़ना है?...यदि हां, तो थोड़ा कम आराम कीजिए।

आप अपने घर-परिवार के लिए इतनी मेहनत करते है, तो क्या उस समय में से दस-पांच मिनट दूसरे के लिए भी नहीं दे सकते। ऐसा करके देखिएगा, बदलाव आपके सामने दिखेगा और उससे जितनी खुशी और आनंद आपको मिलेंगे, उतना कार पर लांग ड्राइव लेने, यारों के साथ बियर की बोतले गटकने से भी नहीं होगा।

भाई साहब...यदि इंसानियत और मानवता का आनंद और भी आसानी से प्राप्त करना हो तो मेरा एक सुझाव चाहें तो मान सकते हैं-यह सुझाव मैं निजी अनुभव के आधार पर दे रहा हूं-मानना न मानना आपकी इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि इंसानियत और मानवता का आनंद उठाने के रास्ते अनेक हैं, पर सबके मूल में एक ही परमात्मा है। क्योंकि सबका मालिक एक ही है। और मैं इस परम वाक्य के वक्ता और परमात्मा के प्रवक्ता, करूणा के अवतार बाबा साईनाथ की शरण में जाने और उनका अनुसरण करने की आपसे आग्रह करता हूं। भारत रूपी समाज को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए मुझे लगता है कि बाबा की भक्तिमार्ग को अपनाना सबसे सरल रास्ता है।

यह मानवीयता क्या चीज है...

एक अंतहीन सी भूल भलैया में उलझा है
औपचारिकताओं से लदा यह समय
जहां दरअसल
आगे बढना और ज्यादा उलझते जाना है
तार्किकता से दूर
गणित का सिर्फ यही बचता है
हमारे मनसों में
संख्याएं हमें कहीं का नहीं छोड़ती
वे हमें गिनने की मशीनों में तब्दील कर देती हैं

जोड़ बाकी लगाते हुए
हमारे लिए हर चीज सिर्फ साधन हो जाती है
और लगातार इसकी आवृत्ति से
धीरे धीरे हमारे साध्यों में
पता ही नहीं चलता
इस तरह चीजों में ही उलझे हुए हम
खुद एक चीज में तब्दील हो गये हैं
औऱ बाजार के नियमों से
संचालित होने लगे हैं

बच्चे अब रोज ही अक्सर पूछते हैं
यह मानवीयता क्या चीज हैं..
क्या आपको पता है ये
मानवीयता क्या चीज है...

Thursday, September 23, 2010

अयोध्या किसकी.................

5 मुकदमे...30 पक्षकार...और देशभर की संवेदनाएं से जुडा अयोध्या उर्फ श्रीराम जन्म भूमि उर्फ बाबरी मस्जिद......24 को आने वाले ये फैसला 1 हफ्ते के टल गया ............500 सालों से चर्चित तथा 1850 से चले आ रहे देश के इस सबसे बडे विवादित फैसले पर सबकी नज़र टिकी हुई है.....।बडी लंबी जद्दोजहद के बाद अदालत ने इस बार इस विवादित मामले पर फैसला देने की ठानी है....।अदालत को ना सिर्फ इस मामले पर फैसला देना है बल्कि तकरीबन 150 साल पहले अंग्रेजों1885-86में दिये फैसले पर विचार करेगी.........।अयोध्या मामले पर अभी तक कुल 4 मुकदमे विचाराधीन है.इनमें से तीन मामले हिंदु पक्ष के है और एक मामला मस्लिम पक्ष की तरफ से है....।500 साल पहले 1528 में अयोध्या में एक मस्जिद बनी लोगों का मानना है कि इस जगह पर श्री राम का जन्म हुआ था....इस मस्जिद को बाबर ने यहां बनवाया था....मस्जिद के निर्माण के 300 सालों बाद पहली बार इस जगह में 1853 में सांप्रदायिक दंगे हुए ......।तनाव के हाताल देखते हुए ब्रिटिश शासन ने 1859 मे इस जगह पर बाड लगा दी और भीतरी हिस्से पर में हिंदुओ को पूजा करने और बाहरी हिस्से में मुसलमानों को नमाज अदा की इजाजत दे दी...।1949 में इस जगह पर भगवान राम की मूर्तिया पाई गयी और विवाद बढने लगा जिस पर सरकार ने तुरंत कार्यवाई करते हुए विवादित स्थल पर ताला लगा दिया......।लंबे समय तक यह मुद्दा लोगों के दिलों में बैठा रहा और 6 दिसंबर 1992 को कारसेवको द्वारा  मस्जिद को गिरा दिया गया....।
अयोध्या इतिहास के पन्नों पर.....
बाहदुर शाह आलमगीर की पौत्री ने 17 -18 शताब्दी के मध्य एक किताब सफीहा-ए-चलह लिखी थी इस किताब  के जानकार मिर्जा जान के मुताबिक ....."मथुरा,बनारस औऱ अवध के काफिरों के इबादतगाह जिन्हे वे गुनहगार और काफिर कन्हैया की पैदाइगाह,सीता की रसोई और हनुमान की यादगार मानते हैं....इस्लाम की तकात के आगे यह सब नेस्तेनाबूद कर दिय गए और इन सब मुकामों पर मस्जिदें तामीर करवा दी गई है....।" के रूप में बताया है......तो वहीं हदीका-ए-शहदा के मुताबिक 1855 में वाजिद अली शाह के जमाने में हनुमान गढी को हिंदुओं  के कब्जे से वापिस लेने के लिए अमीर अली असेठनी के नेतृत्व में किये गये संघर्ष का विवरण मिलता है....।इसी किताब के अध्याय 9 में इस जगह को राम के वालिद की राजधानी बताया गया है...।जहां पर एक बड़ा मंदिर होना बताया गया है।इसी जगह पर सीता की रसोई जिसे आज भी सीता पाक के नाम से जाना जाता है का भी जिक्र है...।
विवाद की जड क्या......
हिंदुओं का मानना है कि इस जगह पर भगवान राम  का जन्म हुआ था....जिसे साबित करने के लिए विश्व हिंदु परिषद् ने 1990 में इतिहासकारों एवं पुरात्तववेत्ताओ के लेखों के साथ ही कई तरह के आकंडे और नक्शों के साथ रिकार्ड भी पेश किया.....।तो मुस्लिम पक्षकारों का कहना है  1528 से लेकर 1885 तक के आंकडों के अनुसार यहां पर मुस्लिमों का हकहै। विवाद के शरूआत में तो मुद्दा केवल उन मूर्तियों का था जो मस्जिद के आंगन में पहले से ही रखीथी...जिन्हे दोबारा वहां पर स्थापित किया जाये।  जैसे जैसे विवाद बढता गया मंदिर और मस्जिद के दायरे भी बढते गये.....शरूआत में इस मुकदमें कुल 23 प्लाट शामिल थे जिनका रकबा कम था....लेकिन 1993 के बाद इस विवाद को हल करने के लिए मंदिर मस्जिद दोनो को बनवाने केलिए मस्जिद समेत 70 एकड जमीन अधिग्रहीत कर ली गई है।
अब तक के अदालती फैसले....
अब तक अदालत से आये फैसलों मे ंसबसे पहले1950 में फैजाबाद कोर्ट ने रामलला की मूर्तियां हटाने अथवा पूजा में हस्तक्षेप पर रोक लगा दी।मंहत रघुवरदास ने जन्मभूमि पर एक चतुबरे के निर्माण की मांग की थी.... जिसे फैजाबाद अदालत ने खारिज कर दिया था।1955 में पूजा स्थल में ताला लगा दिया ....औऱ पुनः1986 को अदालत ने ताला खोलने के आदेश दिये।1994 मे  सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी राय  देने से इंनकार कर दिया क्या वहां कोई मंदिर तोडकर मस्जिद बनाई गईथी। और फिर मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट को सौप दिया गया।
                          

Monday, September 20, 2010

इन हाथों में साथ रहने की लकीरें ही कम थी...

वो मौसम वो बहार उसके सामने कम थी,
साथ गुज़रा हुआ वक़्त वो फिजा कम थी,
दूर तो आखिर होना ही था जालिम,क्या करें,
इन हाथों में साथ रहने की लकीरें ही कम थी...

Tuesday, September 14, 2010

रोटी छीनकर सेंकते हैं रोटियां वो....................


कॉमनमैन के पैसे से कॉमनवेल्थ गेम्स करा रहे हैं वो....औऱ ये कॉमनवेल्थ गेम्स भ्रष्टाचार की वो कहानी कह रहे हैं जिससे कॉमन मैन का ही भरोसा सरकार से उठता जा रहा है।किसी विदेशी अखबार ने कुछ दिनों पहले ही भारत में हो रहे कॉमन वेल्थ गेम्स में हुए घोटाले को लेकर कहा है कि इस मामले में कम से कम भारत को भ्रष्टाचार का तो गोल्ड़मेडल मिल ही जायेगा। गरीबों की रोटिया छीनकर कॉमनवेल्थ की आड में अपनी रोटियां सेंक रहे इसके सर्वेसर्वा क्या कभी कठघरे में आ पायेगें?आयेगें तो कब आयेगें ? यह सवाल हर किसी के मन में है।अजीब बात है जिन गोरों ने हमें गुलाम बनाया उन्हीं की गुलामी की याद में हम कामनवेल्थ गेम्स के जलसे की मेजबानी कर रहे हैं। जब कॉमन वेल्थ गेम्स की तैयारी की जा रही थी तो इसके उद्देश में कहा गया था समानता मानवता और नियति को उल्लेखित किया गया था लेकिन समझ नहीं आता है कि जिसदेश में 35 करोड जनता भूखी सोती है उस देश में अस्सी हजार करोड का खेल समारोग आयोजित कर कैसे समानता  आएगी और जिनके हाथ भ्रष्टाचार से सने हों यह कैसे मानवता लायेगें। ऐसे में नियति की क्या बात की जाए।कितनी बड़ी विडवना है कि जो सरकार लेह त्रासदी के लिए 125 करोड देती है वही एक स्टेडियम के लिए 300 करोड फूंक देती है।पिछले डेढ साल से तैयारियो कीराग अलापने के बाद भी कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन अधूरे निर्माण कार्यों और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है।चीन को देखें एशियन गेम्स के 100 दिन पहले से ही वहां पर सारी तैयारियां पूरे हो चुकी थी और हमारे यहां 3 अक्टूबर से शुरू हो रहे  इन खेलों के लिए अभी भी हायतौबा मची हुई है।औऱ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका ये आयोजन सफल हो भी पाता है या नही यह भी भगवान भरोसे है।इन खेलों के लिए आ रहे पैसों की बात करें तो इस पूरे खेल आयोजन में कुल 8324 करोड का अनुदान दिया गया है।महाराष्ट्र सरकार और उसकी शाखा कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स की तरफ से 351 करोड रुपये का अनुदान दिया गया है...दिल्ली सरकार  1770करोड  रूपये व्यय  कर रही है इस आयोजन पर।इसके अतिरिक्त दिल्ली सरकार निर्माण,पानी,यातायात आदि पर भी करोडों रूपये खर्च कर रही है।पूरे आयोजन की तैयारियों पर अब तक कुल 10445 करोड खर्च किया गया है ।तो दूसरी तरफ इन खेलों में हो खर्चें में भ्रष्टाचार का वो रूप सामने आय़ा है जिसने पूरे देश में हल्ला मचा रखा हुआ है।इन खेलों में  भारत की साफ और स्वच्छ तस्वीर दिखाने के चक्कर में दिल्ली में बसे भिखारियों,हाथ ठेले वालो ,रिक्शा चालकों को भगाया जा रहा है कुछ तो रोजाना गायब हो रहे हैं ,रात के अंधेरे में यह काम दिल्ली सरकार के इशारे पर हो रहे किसी को धमकाया जा रहा है तो किसी को पैसों का लालच देकर भगाया जा रहा है लेकिन दूसरे पक्ष पर अभी तक किसी ने भी गौर नहीं किया है और वो इस पूरे खेल के पीछ सक्रिय मानव अंग की तस्करी करने वाले गिरोह .................इस पूरे मामले मे देखा जाये तो सरकार कह रही है कि लोग गायब नहीं हुए बल्कि यहां से बाहर भेज दिये गये ..........पर मामला पूरी तरह से साफ हो ऐसा भी नहीं लग रहा है। सरकार के इशारे पर हो रहे इन देश निकाला खेल पर भी एक बडेखुलासे की जरूरर हो सकती है.........औऱ वो दिन भी दूर नहीं होगा जब किसी दिन अचानक इस खबर पर भी बवाल मच जाये....।पहली बार दिल्ली में आयोजित इन खेलों को लेकर सरकार ने अब तक दस हजार करोड रूपये से भी ज्यादा पैसा फूंक चुकी है......लेकिन कहां किसी को नहीं पता ............बाजार में मिलने वाली 1.60 हजार की ट्राली बेड को इन खेलों के लिए पौने तीन लाख में खरीदा गया...........शिफ्टिगं ट्राली की कीमत बाजार में 40 हजार तो इन खेलों के लिए इसे 72 हजार में खरीदा गया है......जिसकी कीमत जिसकी कीमत एक करोज 77 लाख है।दोनो ट्राली को मिलाकर सरकार ने कुल 124 ट्राली बेग और 36 शिफ्टिंग ट्राली खरीदी है..........सिर्फ इन दोनो की खरीदी पर ही सरकार  ने जनता तीन करोड रूपये से भी ज्यादा का चूना लगाया है। यानि की यदि पूरे आयोजन पर की खरीदी की व्याख्या  की जाये तो  यह कहा जा सकता है यह कॉमन वेल्थ गेम्स नही बल्कि गेम ऑफ वेल्थ ज्यादा सटीक है......

Monday, September 13, 2010

मोटे तौर पर देखें तो भारत में सब ठीक-ठाक ही चल रहा है।

न हम किसी युद्ध में फंसे हैं, न कोई दंगे हो रहे हैं, न चीन और पाकिस्तान की तरह हजारों लोग बाढ़ में मर रहे हैं, न सरकार के गिरने की कोई नौबत है। विकास दर में बढ़ोतरी हो रही है, महंगाई थोड़ी घटी है, करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों को हम करोड़ों रुपए यों ही दे देते हैं। हमारे दिल्ली जैसे शहर यूरोपीय शहरों से होड़ ले रहे हैं।
हजारों करोड़ रुपए हम खेलों पर खर्च कर रहे हैं तो फिर रोना किस बात का है? देश में एक अजीब-सा माहौल क्यों बनता जा रहा है? खासतौर से तब जबकि देश के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा पक्ष और विपक्ष की भूमिका निभाने की बजाय पक्ष और अनुपक्ष की तरह गड्ड-मड्ड हो रहे हैं?
ऐसा क्या है, जो देश को दिख तो रहा है, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है?,जो समझ में नहीं आ रहा, वह एक पहेली है। पहेली यह है कि देश में संसद है, सरकार है, राजनीतिक दल हैं, लेकिन कोई नेता नहीं है? सोनिया गांधी लगातार चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गईं। रिकॉर्ड बना, लेकिन कोई लहर नहीं उठी। डॉ मनमोहन सिंह ने भी रिकॉर्ड कायम किया। नेहरू और इंदिरा के बाद तीसरे सबसे दीर्घकालीन प्रधानमंत्री हैं, लेकिन वे हैं या नहीं हैं, यह भी देश को पता नहीं चलता।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। ऐसी स्थिति, जिसमें होना न होना एक बराबर ही होता है। इसमें जरा भी शक नहीं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच जैसा सहज संबंध है, वैसा सत्ता के गलियारों में लगभग असंभव होता है। भारत में सत्ता के ये दो केंद्र हैं या एक, यह भी पता नहीं चलता। न तो उनमें कोई तनाव है और न ही स्वामी-दास भाव है, जैसा कि हम व्लादिमीर पुतिन और दिमित्री मेदवेदेव के बीच मास्को में देखते हैं।
इसी प्रकार सत्ता पक्ष और विपक्ष देश में है तो सही, लेकिन कहीं कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती। छोटे-मोटे क्षेत्रीय दल जो कांग्रेस के साथ हैं, उनके नेता भ्रष्टाचार के ऐसे मुकदमों में फंसे हुए हैं कि कांग्रेस ने जरा स्क्रू कसा नहीं कि वे सीधे हो जाते हैं।
जिस बात का वे निरंतर विरोध करते हैं, उसी पर दौड़कर समर्थन दे देते हैं। जैसा कि परमाणु सौदे पर पिछली संसद में हुआ था। कांग्रेस का हाल भी वही है। वह उनके ब्लैकमेल के आगे तुरंत घुटने टेक देती है। जिस जातीय गणना का कांग्रेस ने 1931 में और आजाद भारत में सदा विरोध किया, अब कुछ जातिवादी क्षेत्रीय दलों के दबाव में आकर उसने अपनी नेता की भूमिका तज दी और अब वह उन अपने समर्थक दलों की पिछलग्गू बन गई है।
सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता पर आरूढ़ जरूर है, लेकिन कई मुद्दों पर वह पत्ता भी नहीं हिला सकती। इससे भी ज्यादा दुर्दशा विपक्षी दलों की है। कम्युनिस्ट पार्टियां अभी भी मुखर हंै, लेकिन पिछले चुनाव में वे अपने गढ़ों में ही पिट गईं। उनका आपसी लत्तम-धत्तम इतना प्रखर हो गया है कि उनके मुखर होने पर देश का ध्यान ही नहीं जाता। जोशी-डांगे-मुखर्जी और नंबूदिरिपाद की कम्युनिस्ट पार्टियों में आज के जैसा संख्या-बल नहीं था, लेकिन वाणी-बल था, जो सारे देश में प्रतिध्वनित होता था।
नेहरू जैसे नेता को भी उस पर प्रतिक्रिया करनी पड़ती थी। आजकल यही पता नहीं चलता कि वामपंथ का असली प्रवक्ता कौन है। मार्क्‍सवादी पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने परमाणु-हर्जाना विधेयक का विरोध जरूर किया, लेकिन वह नक्कारखाने में तूती की तरह डूब गया। वे दिन गए, जब लोहिया के पांच-सात लोग पूरी संसद को अपनी चिट्टी उंगली पर उठाए रखते थे। अब दिन में दीया लेकर ढूंढ़ने निकलो तो भी कोई समाजवादी नहीं मिलता।
इतनी बड़ी संसद में क्या एक भी सांसद ऐसा है, जो लोहिया की तरह पूछ सके कि प्रधानमंत्रीजी, आप पर 25000 रुपए प्रतिमाह कैसे खर्च हो रहे हैं और आम आदमी तीन आने रोज पर कैसे गुजारा करेगा? अब तो पूंजीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी- सभी एक पथ के पथिक हो गए हैं।
सबसे बड़े विपक्षी दल के तौर पर भाजपा जबर्दस्त भूमिका निभा सकती थी, लेकिन वह बिना पतवार की नाव बन गई है। उसका अध्यक्ष भी कांग्रेस अध्यक्ष की तरह आसमान से उतरने लगा है। वह अपने नेताओं के कंधों पर बैठा है, लेकिन उसके पांव नहीं हैं। उसे पांव की जरूरत भी क्या है?
भाजपा में हाथ-पांव ही हाथ-पांव हैं। यह कार्यकर्ताओं की पार्टी ही तो है। इसमें गलती से एक नेता उभर आया था। उसे जिन्ना ले बैठा। अब कांग्रेस की तरह भाजपा के शिखर पर भी शून्य हो गया है। ये शून्य-शिखर आपस में जुगलबंदी करते रहते हैं। शून्य-शिखरों की इस जुगलबंदी में से कुछ समझौते निकलते हैं और कुछ शिष्टाचार निभते हैं, लेकिन कोई वैकल्पिक समाधान नहीं निकलते। भारत की राजनीति में से द्वंद्वात्मकता का तिरोधान हो गया है।
यह एकायामी (वन डायमेंशनल) राजनीति नौकरशाहों और सरकारी बाबुओं के कंधों पर टिकी हुई है। इसमें पार्टियों की भूमिका गौण हो गई है। जनता और सरकार के बीच पार्टी नाम का सेतु लगभग अदृश्य हो गया है। जब पार्टी ही अप्रासंगिक हो गई है तो नेता की जरूरत कहां रह गई है? बिना नेता के ही यह देश चला जा रहा है। यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा अजूबा है। बाबुओं के दम पर बाबुओं का राज चल रहा है। आम जनता के प्रति हमारे बाबुओं का जो रवैया होता है, वही आज हमारे नेताओं का है।
देश में अगर आज कोई नेता होता तो क्या वह अनाज को सड़ने देता? यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए, लेकिन भूखों को मुफ्त बांटने के विरुद्ध ऐसे तर्क वही दे सकता है, ‘जाके पांव फटी न बिवाई’! सरकार तो सरकार, विपक्ष क्या कर रहा है?
वह उन गोदामों के ताले क्यों नहीं तुड़वा देता? धरने क्यों नहीं देता? सत्याग्रह क्यों नहीं करता? भ्रष्टाचार क्या सिर्फ केंद्र में है? क्या राज्य सरकारें दूध की धुली हुई हैं? भाजपा और जनता दल के राज्यों में कोई चमत्कारी कदम क्यों नहीं उठाया जाता? माओवादियों से पांच-सात राज्य ऐसे लड़ रहे हैं, जैसे वे पांच-सात स्वतंत्र राष्ट्र हों। क्यों हो रहा है, ऐसा? इसीलिए कि देश में कोई समग्र नेतृत्व नहीं है। चीनियों के आगे भारत को क्यों घिघियाना पड़ रहा है?
कश्मीर में कोरे शब्दों की चाशनी क्यों घुल रही है? कोई बड़ी पहल क्यों नहीं हो रही है? इसीलिए कि भारत की राजनीति के बगीचे में सिर्फ गुलदस्ते सजे हुए हैं। इन गुलदस्तों में न कोई कली चटकती है और न फूल खिलते हैं। जो फूल सजे हुए हैं, उनमें खुशबू भी नहीं है। भारत का नागरिक समाज या चौथा खंभा भी इतना मजबूत नहीं है कि वह नेतृत्व कर सके। इसके बावजूद भारत है कि चल रहा है। अपनी गति से चल रहा है। शिखरों पर शून्य है तो क्या हुआ? मूलाधार में तो कोई न कोई कुंडलिनी लगी हुई है।

Wednesday, September 1, 2010

मैदान में उतरा गांधी


पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।
वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी।राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने गांधीहोने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

(साभार संजय द्विवेदी  जी)

Tuesday, August 31, 2010

श्रीकृष्ण और प्रांसगिगकता

।। ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः। ॐ।।

''हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।''- गीता
सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था।
यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे।
श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी से अधर्म को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित किया। समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे।
उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना कीश्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।

कर्म योगी कृष्ण : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। गीता में कर्म बंधन से मुक्ति के साधन बताएँ हैं। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्ति आवश्यक है।                                 
भगवान कृष्ण इस दुनिया में सबसे आधुनिक विचारों वाले भगवान कहे जाएं तो भी गलत नहीं होगा। कृष्ण ने पूरे जीवन ऐसे समाज की रचना पर जोर दिया जो आधुनिक और खुली सोच वाली हो। उन्होंने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबके लिए ऐसे विचार और मंत्र दिए जो आज भी आधुनिक श्रेणी के ही हैं। समाज में जिस तरह की सोच आज भी विकसित नहीं हो पाई कृष्ण ने वह सोच आज से पांच हजार साल पहले दी थी और उस दौर में उन पर अमल भी किया।
आइए जन्माष्टमी के मौके पर जानते हैं पांच हजार साल पहले के आधुनिक विचार वाले कृष्ण को।
- आज के युग में औरतों को पुरुषों से निचले दर्जे पर रखा जाता है। हम कहने को आधुनिक हैं लेकिन हमारे समाज में आज भी महिलाओं को लेकर सोच नहीं बदली। कृष्ण ने उस दौर में महिलाओं को समान अधिकार, उनकी पसंद से विवाह और लड़कियों को परिवार में समान अधिकार का संदेश दिया था।
- आज के समाज में अभी भी यह मान्यता है कि एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। कृष्ण ने द्रौपदी को अपनी सखी, मित्र ही माना और पूरे दिल से उस रिश्ते को निभाया भी। द्रौपदी से कृष्ण की मित्रता को देखते हुए द्रौपदी के पिता द्रुपद ने उन्हें द्रौपदी से विवाह का प्रस्ताव भी दिया लेकिन कृष्ण ने इनकार किया और हमेशा अपनी मित्रता निभाई।
- जात-पात के चक्रव्यूह में आज भी हमारा समाज जकड़ा है लेकिन कृष्ण ने लगभग सभी वर्गों को पूरा सम्मान दिया। उनके अधिकतर मित्र नीची जाति के ही थे, जिनके लिए वे माखन चुराया करते थे।
- परिवार की लड़ाई में लड़के-लड़कियों की पसंद को महत्व नहीं दिया जाता लेकिन कृष्ण ने पांच हजार साल पहले ही इस बात को नकार दिया। दुर्योधन उनका शत्रु था और उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। न ही दुर्योधन कृष्ण को पसंद करता था, फिर भी जब कृष्ण के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का हरण कर उससे विवाह किया तो कृष्ण ने उसे स्वीकार किया। दुर्योधन भी नाराज था और युद्ध के लिए तैयार था लेकिन कृष्ण ने उसे समझाया कि हमारी दुश्मनी अपनी जगह है लेकिन इसमें हमें बच्चों के प्रेम को नहीं तोडऩा चाहिए।
- बलात्कार पीडि़त लड़कियों को आज भी समाज में सम्मान नहीं मिलता लेकिन कृष्ण ने 16100 ऐसी लड़कियों को जरासंघ के आत्याचारों से मुक्ति दिलाई और अपनी पत्नी बनाया जो बलात्कार पीडि़ता थीं और उनके परिवारों ने ही उन्हें अपनाने से मना कर दिया था।
यानी खुद को या कृष्ण को समर्पित होने का अर्थ है विश्व को (समाज को?) समर्पित होना। यानी खुद को समर्पित होना है तो पहले खुद को विश्वाकार बनाना, मानना पड़ेगा। एक बार बन, मान गए तो एक ओर अहं ब्रह्मस्मि  का मर्म समझ में आ जाता है तो दूसरी और कृष्ण के तेजस्वी, आपातत: निर्लक्ष्य पर सतत कर्मपरायण जीवन का और फल पर अधिकार जताए बिना कर्मशील गीता-दर्शन का मर्म भी समझ में आ जाता है। पर खुद को विश्वाकार समझना ही तो कठिन है। इसलिए तो कहते हैं कि कृष्ण बनना ही आसान कहां है?

कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥

तोर अस जोड़ी हो ललना , मोरे अस जोड़ी
कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥


कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना मे बिहाव मोरे ललना ।


माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
फागुन महीना मे बिहाव मोर ललना ॥


कोरवन पाइ–पाइ भँवर गिंजारे ।
खोरवन पाइ –पाइ भंवर गिंजारे ।
भँवर गिंजारे हो ललना , भँवर गिंजारे ।
पर्रा मे लगिंन लगाय मोरे ललना ॥

Friday, August 27, 2010

फोन पर तुम्हरी आवाज

(बडे दिनो जिसने ख्बावों मे परेशान कर रखा था आज उससे बात हुई)

फोन पर तुम्हरी डरी सहमी

आवाज को सुनकर लगा,मानो

कांच की पकी चूडियों के बीच
तुम्हारा कच्चापन भी शामिल हो
तुम्हारी आवाज से तुम्हारे कोमल हृदय का
डरना घबराना साफ दिख गया

तुम्हारी आवाज जैसे
किसी कोयल के बच्चे ने अभी अभी
चहकना शुरू किया हो
और एक बार ही कूक कर जैसे
अपनी ही आवाज में शर्मा गया हो

Monday, August 23, 2010

ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरी के बरदान

करेला असन करू होगे का ओ तोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया
करेला असन करू होगे का ओ, करेला असन करू होगे का य मोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया


हाय रे तिवरा के ड़ार , टुरी तेल के बघार
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरचा मारे झार
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया


हाय रे धनिया के पान, मिरी बँगाला मितान
गजब लागे वो , गजब लाबे
ये गजब लागे वो ये गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरी के बरदान
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया


हाय रे जिल्लो के भाजी, खाय बर डौकी डौका राजी
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा सुकसी मारे बाजी
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया

एसो के सावन मे जम के बरस रे बादर करिया

एसो के सावन मे जम के बरस रे बादर करिया,
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया ॥




महर-महर ममहावत हाबे धनहा खेत के माटी ह,
सुवा ददरिया गावत हाबे, खेतहारिन के साँटी ह ॥
उबुक-चुबूक उछाल मारे गाँव के तरिया,
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया ॥




फोरे के तरिया खेते पलोबो , सोन असन हम धान उगाबो ,
महतारी भुईया ले हमन , धान पाँच के महल बनाबो ।
अड़बड़ बियापे रिहिस , पौर के परिया , बादल करिया ।
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया

पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला

हो गाड़ी वाला रे ..
पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला
पता दे जा, ले जा गाड़ी वाला रे
तोर गांव के तोर काम के
तोर नाम के पता दे जा
पता ले जा रे
पता दे जा रे गाड़ी वाला
का तोर गांव के नाव दिवाना डाक खाना के पता का
नाम का थाना कछेरी के तोरे
पारा मोहल्ला पता का
को तोरे राज उत्ती बुड़ती रेलवाही पहार सड़किया
पता दे जा रे पता ले जा रे गाड़ी वाला
मया नई चिन्हे देसी बिदेसी मया के मोल न तोल
जात बिजाति न जाने रे मया, मया मयारु के बोल
काया-माया सब नाच नचावे मया के एक नजरिया
पता दे जा रे
पता ले जा रे गाड़ीवाला..
जीयत जागत रहिबे रे बैरी
भेजबे कभुले चिठिया
बिन बोले भेद खोले रोवे, जाने अजाने पिरितिया
बिन बरसे उमड़े घुमड़े ,जीव मया के बैरी बदरिया
पता दे जा रे
पता ले जारे गाड़ी वाला ...
पता दे जा, ले जा गाड़ी वाला रे
तोर गांव के तोर काम के
तोर नाम के पता दे जा
हो गाड़ी वाला रे ..

Sunday, August 22, 2010

सखी मिलना सपनों में आज

 (पिछले कुछ दिनो से एक अजनबी ने बैचेन कर ऱखा है ..इतना प्यारा है कि कुछ इसके सिवा और कह ही नहीं सकता हूं)



गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना सपनों में आज
चांदनी रात में कंचन तन मुख मंडल में सजाना आज
सखी सपनों में मिलना आज

कमल कोंपल से कोमल पांव तेरे
और पथरीले पथ हैं चारो ओर
तू अमुल्य निधि है सृष्टि की
ताक रहे हैं   तुझे चित चोर
सबसे सकुचान पर मुझसे नयन मिलाना आज
गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना

कदम बढाना हौले हौले
निज नस नस मे दमकते शोले
चेहरे पे चंद्रमा का भ्रम चकोर भी बोले
सुनकर तेरे पायल की आवाज
कहां छिडी है सरगम आज
सखी मिलना सपनों में आज
गर प्रकट मिलन में आये लाज

गजरे  ना लगाना बालों में
कहीं चुरा ना ले केशों की खुशबू
गर होठों हिलें तो ऐसा लगेगा
छेडी है प्रकृति तो ऐसा लगेगा
छेड़ी है प्रकृति ने साज़
गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना सपनों में आज

कुछ यादों के गीत कुछ गीतों की यादें......

कौन रंग हीरा कौन रंग मोती
कौन रंग ननदी बिरना तुम्हार ?
लाल रंग हीरा पियर रंग मोती
सँवर रंग ननदी बिरना तुम्हार
फूट गए हिरवा बिथराय गए मोती
रिसाय गए ननदी बिरना तुम्हार
बीन लैहौं हीरा बटोर लैहौं मोती
मनाय लैहौं ननदी बिरना तुम्हार

Saturday, August 21, 2010

किसी रोज़ जिंदगी से मिलायेंगे तुम्हें.......

कभी चाहोगे तो चाहत से बुलाएँगे तुम्हें
दर्द-ए-दिल क्या होता हैये दिखायेंगे तुम्हें
मोहब्बत होती है क्या मोहब्बत कर के देख लेना
फिर मेरे पास आना कुछ और बताएँगे तुम्हें
कभी न आयें आँख में आंसू तो ऐसा करना
एक शाम मेरे पास आना बोहत रुलायेंगे तुम्हें 
हर पल रहोगे मुहब्बत में बेचैन
ख्याल बन कर सतायेंगे तुम्हें
पूछते हो जो जिंदा रहने का सबब चलो
किसी रोज़ जिंदगी से मिलायेंगे तुम्हें

Wednesday, August 18, 2010

आप इसे जरूर गुनगुनाएं.........

काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे

क्या सोच रहें है.........कुछ पल इनके नाम

१.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन? ना सखि! कुत्ता!

२.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि! जाड़ा!

३.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि! तारा!

४.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि! जूता!

५.
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि! चांद!

६.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि! लोटा!

७.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि! ढोल!

८.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि! मक्खी!

९.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि! तोता!

१०.
आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि! पंखा!

११.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि! चंद!

१२.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि! अंजन!

१३.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि! नीर!

१४.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि! पाती!

१५.
सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन? ना सखि! हार!

१६.
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि! बुखार!

१७.
सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि! सपना!

१८.
बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि! राम!

१९.
सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’? ना सखि! लोन(नमक)

२०.
सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना,सखि! दिया(दीपक)

२१.
वह आवे तब शादी होय,
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागे वाके बोल
ऐ सखि 'साजन’, ना सखि! ‘ढोल’

Tuesday, August 17, 2010

गांव की बात

गांव की बात
गांव तक ही रहने दो
नहीं तो
शहर सुन लेगा/आयेगा
सुहानुभूति का हाथ बढाकर
और
गांव
हवा पानी आग की तरह
शहर को मान लेगा
अपनी बिरादरी का
और स्वीकर कर लेगा
उसका आतिथ्य
फिर
दस्तख्त कर देगा
कोरे स्टाम्प पेपर पर
और
करता रहेगा
करता रहेगा शहर की चाकरी
पीढी-दर-पीढी
जाने कितनी पीढियों तक....।

Monday, August 16, 2010

ये आजादी है या गुलामी... सवाल है वल्दियत...

पिछल दिनों एक ब्लाग पर एक लेख मिला आप लोगो के साथ बांटने का मन हुआ साथ में लिंक संलग्न है,विषय इतना गंभीर है कि आप सुधी पाठकों के विचार जरूर व्यक्त होना चाहिए....

जन्मभूमि जननी और स्वर्ग से महान है। मेरा देश- मेरी धरती मेरी मां है... फिर राष्ट्रपिता और राष्ट्रपति जैसे शब्दों का क्या मायना है? अगर मां कहलाने वाली हमारी मातृभूमि का अस्तित्व प्राकृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से युगों से कायम है तो क्या हर पांच साल में नया पति (राष्ट्रपति) और कथाकथित आजादी के बाद पिता (राष्ट्रपिता) का क्या औचित्य और इसकी क्या जरूरत... वह भी उस स्थिति में जब प्रेसीडेंट के अनुवाद में राष्ट्राध्यक्ष और आधुनिक भारत के संदर्भ में आधुनिक राष्ट्र के मूलाधार, कर्णधार, शिल्पकार जैसे शब्द मौजूद हैं...

घोटालों, निराशा और आमजन की कीमत पर हो रही राजनीति (इसे सत्ता और शक्ति के लिए गिरोहबाजों की जंग कहें तो ज्यादा बेहतर) के घटाटोप अंधेर में... आधुनिक आजादी के उत्सव की पूर्वसंध्या पर मेरे मन में एक ऐसा सवाल उफन रहा है शायद जिसका जवाब आजाद होने से अब तक या तो मांग नहीं गया है या किसी ने सवाल उठाने की जुर्रत नहीं की है...

देश के चाहे जिस व्यक्ति, दल या तबके को यह शब्द मंजूर हों, लेकिन मेरा मानना है कि मुझे अभी इन शब्दों से आजाद होना बाकी है और उसके बाद गिरोहबाज राजनेताओं से... शायद तब सच्ची आजादी प्राप्त हो जाए...


अधिकारिक टिप्पणी के लिए पधारे...http://kaldevdk.blogspot.com/

Friday, August 13, 2010

क्या जिंदगी है और भूख है सहारा....सारे जहां से अच्छा.....

क्या जिंदगी है और भूख है सहारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
सौ करोड़ बुलबुले जाने शाने गुलिस्तां थी
उन बुलबुलों के कारण उजडा चमन हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
पर्वत ऊंचा ही सही,लेकिन पराया हो चुका है
न संतरी ही रहा वह,ना पासवां हमारा
गोदी पे खेलती हैं हजार नदियां,पर खेलती नहीं हैं
जो तड़फती ही रहती हैं,कुछ बोलती नहीं हैं,
बेरश्क हुआ गुलशन ,दम तोड के हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
अब याद के आलावा गंगा में रहा क्या है
कितनों ने किया पानी पी पी के गुज़ारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
मज़हब की फ्रिक किसको और बैर कब करें हम
है भूखी नंगी जनता गर्दिश में है सितारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
यूनानो,मिश्र,रोमां जो कब के मिट चुके
उस क्यू मे हम खड़े हैं नंबर लगा हमारा
जिंदगी की गाड़ी रेंगती है धीरे धीरे
घर का चिराग अपना ,दुश्मन हुआ हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

(बरबस ही याद हो आया फिर भी मेरा देश महान )