अभी अभी ......


Tuesday, August 31, 2010

श्रीकृष्ण और प्रांसगिगकता

।। ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः। ॐ।।

''हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।''- गीता
सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था।
यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे।
श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी से अधर्म को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित किया। समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे।
उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना कीश्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।

कर्म योगी कृष्ण : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। गीता में कर्म बंधन से मुक्ति के साधन बताएँ हैं। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्ति आवश्यक है।                                 
भगवान कृष्ण इस दुनिया में सबसे आधुनिक विचारों वाले भगवान कहे जाएं तो भी गलत नहीं होगा। कृष्ण ने पूरे जीवन ऐसे समाज की रचना पर जोर दिया जो आधुनिक और खुली सोच वाली हो। उन्होंने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबके लिए ऐसे विचार और मंत्र दिए जो आज भी आधुनिक श्रेणी के ही हैं। समाज में जिस तरह की सोच आज भी विकसित नहीं हो पाई कृष्ण ने वह सोच आज से पांच हजार साल पहले दी थी और उस दौर में उन पर अमल भी किया।
आइए जन्माष्टमी के मौके पर जानते हैं पांच हजार साल पहले के आधुनिक विचार वाले कृष्ण को।
- आज के युग में औरतों को पुरुषों से निचले दर्जे पर रखा जाता है। हम कहने को आधुनिक हैं लेकिन हमारे समाज में आज भी महिलाओं को लेकर सोच नहीं बदली। कृष्ण ने उस दौर में महिलाओं को समान अधिकार, उनकी पसंद से विवाह और लड़कियों को परिवार में समान अधिकार का संदेश दिया था।
- आज के समाज में अभी भी यह मान्यता है कि एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। कृष्ण ने द्रौपदी को अपनी सखी, मित्र ही माना और पूरे दिल से उस रिश्ते को निभाया भी। द्रौपदी से कृष्ण की मित्रता को देखते हुए द्रौपदी के पिता द्रुपद ने उन्हें द्रौपदी से विवाह का प्रस्ताव भी दिया लेकिन कृष्ण ने इनकार किया और हमेशा अपनी मित्रता निभाई।
- जात-पात के चक्रव्यूह में आज भी हमारा समाज जकड़ा है लेकिन कृष्ण ने लगभग सभी वर्गों को पूरा सम्मान दिया। उनके अधिकतर मित्र नीची जाति के ही थे, जिनके लिए वे माखन चुराया करते थे।
- परिवार की लड़ाई में लड़के-लड़कियों की पसंद को महत्व नहीं दिया जाता लेकिन कृष्ण ने पांच हजार साल पहले ही इस बात को नकार दिया। दुर्योधन उनका शत्रु था और उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। न ही दुर्योधन कृष्ण को पसंद करता था, फिर भी जब कृष्ण के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का हरण कर उससे विवाह किया तो कृष्ण ने उसे स्वीकार किया। दुर्योधन भी नाराज था और युद्ध के लिए तैयार था लेकिन कृष्ण ने उसे समझाया कि हमारी दुश्मनी अपनी जगह है लेकिन इसमें हमें बच्चों के प्रेम को नहीं तोडऩा चाहिए।
- बलात्कार पीडि़त लड़कियों को आज भी समाज में सम्मान नहीं मिलता लेकिन कृष्ण ने 16100 ऐसी लड़कियों को जरासंघ के आत्याचारों से मुक्ति दिलाई और अपनी पत्नी बनाया जो बलात्कार पीडि़ता थीं और उनके परिवारों ने ही उन्हें अपनाने से मना कर दिया था।
यानी खुद को या कृष्ण को समर्पित होने का अर्थ है विश्व को (समाज को?) समर्पित होना। यानी खुद को समर्पित होना है तो पहले खुद को विश्वाकार बनाना, मानना पड़ेगा। एक बार बन, मान गए तो एक ओर अहं ब्रह्मस्मि  का मर्म समझ में आ जाता है तो दूसरी और कृष्ण के तेजस्वी, आपातत: निर्लक्ष्य पर सतत कर्मपरायण जीवन का और फल पर अधिकार जताए बिना कर्मशील गीता-दर्शन का मर्म भी समझ में आ जाता है। पर खुद को विश्वाकार समझना ही तो कठिन है। इसलिए तो कहते हैं कि कृष्ण बनना ही आसान कहां है?

कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥

तोर अस जोड़ी हो ललना , मोरे अस जोड़ी
कबहू न गढ़े भगवान मोरे ललना ॥


कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी ।
कउन महीना मे बिहाव मोरे ललना ।


माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
माँघ महीना म होही मंगनी अव बरनी ।
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
मंगनी अव बरनी हो ललना , मंगनी अव बरनी
फागुन महीना मे बिहाव मोर ललना ॥


कोरवन पाइ–पाइ भँवर गिंजारे ।
खोरवन पाइ –पाइ भंवर गिंजारे ।
भँवर गिंजारे हो ललना , भँवर गिंजारे ।
पर्रा मे लगिंन लगाय मोरे ललना ॥

Friday, August 27, 2010

फोन पर तुम्हरी आवाज

(बडे दिनो जिसने ख्बावों मे परेशान कर रखा था आज उससे बात हुई)

फोन पर तुम्हरी डरी सहमी

आवाज को सुनकर लगा,मानो

कांच की पकी चूडियों के बीच
तुम्हारा कच्चापन भी शामिल हो
तुम्हारी आवाज से तुम्हारे कोमल हृदय का
डरना घबराना साफ दिख गया

तुम्हारी आवाज जैसे
किसी कोयल के बच्चे ने अभी अभी
चहकना शुरू किया हो
और एक बार ही कूक कर जैसे
अपनी ही आवाज में शर्मा गया हो

Monday, August 23, 2010

ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरी के बरदान

करेला असन करू होगे का ओ तोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया
करेला असन करू होगे का ओ, करेला असन करू होगे का य मोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया


हाय रे तिवरा के ड़ार , टुरी तेल के बघार
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरचा मारे झार
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया


हाय रे धनिया के पान, मिरी बँगाला मितान
गजब लागे वो , गजब लाबे
ये गजब लागे वो ये गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरी के बरदान
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया


हाय रे जिल्लो के भाजी, खाय बर डौकी डौका राजी
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा सुकसी मारे बाजी
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया

एसो के सावन मे जम के बरस रे बादर करिया

एसो के सावन मे जम के बरस रे बादर करिया,
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया ॥




महर-महर ममहावत हाबे धनहा खेत के माटी ह,
सुवा ददरिया गावत हाबे, खेतहारिन के साँटी ह ॥
उबुक-चुबूक उछाल मारे गाँव के तरिया,
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया ॥




फोरे के तरिया खेते पलोबो , सोन असन हम धान उगाबो ,
महतारी भुईया ले हमन , धान पाँच के महल बनाबो ।
अड़बड़ बियापे रिहिस , पौर के परिया , बादल करिया ।
यहू साल झन पर जाय हमर खेत ह परिया

पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला

हो गाड़ी वाला रे ..
पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला
पता दे जा, ले जा गाड़ी वाला रे
तोर गांव के तोर काम के
तोर नाम के पता दे जा
पता ले जा रे
पता दे जा रे गाड़ी वाला
का तोर गांव के नाव दिवाना डाक खाना के पता का
नाम का थाना कछेरी के तोरे
पारा मोहल्ला पता का
को तोरे राज उत्ती बुड़ती रेलवाही पहार सड़किया
पता दे जा रे पता ले जा रे गाड़ी वाला
मया नई चिन्हे देसी बिदेसी मया के मोल न तोल
जात बिजाति न जाने रे मया, मया मयारु के बोल
काया-माया सब नाच नचावे मया के एक नजरिया
पता दे जा रे
पता ले जा रे गाड़ीवाला..
जीयत जागत रहिबे रे बैरी
भेजबे कभुले चिठिया
बिन बोले भेद खोले रोवे, जाने अजाने पिरितिया
बिन बरसे उमड़े घुमड़े ,जीव मया के बैरी बदरिया
पता दे जा रे
पता ले जारे गाड़ी वाला ...
पता दे जा, ले जा गाड़ी वाला रे
तोर गांव के तोर काम के
तोर नाम के पता दे जा
हो गाड़ी वाला रे ..

Sunday, August 22, 2010

सखी मिलना सपनों में आज

 (पिछले कुछ दिनो से एक अजनबी ने बैचेन कर ऱखा है ..इतना प्यारा है कि कुछ इसके सिवा और कह ही नहीं सकता हूं)



गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना सपनों में आज
चांदनी रात में कंचन तन मुख मंडल में सजाना आज
सखी सपनों में मिलना आज

कमल कोंपल से कोमल पांव तेरे
और पथरीले पथ हैं चारो ओर
तू अमुल्य निधि है सृष्टि की
ताक रहे हैं   तुझे चित चोर
सबसे सकुचान पर मुझसे नयन मिलाना आज
गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना

कदम बढाना हौले हौले
निज नस नस मे दमकते शोले
चेहरे पे चंद्रमा का भ्रम चकोर भी बोले
सुनकर तेरे पायल की आवाज
कहां छिडी है सरगम आज
सखी मिलना सपनों में आज
गर प्रकट मिलन में आये लाज

गजरे  ना लगाना बालों में
कहीं चुरा ना ले केशों की खुशबू
गर होठों हिलें तो ऐसा लगेगा
छेडी है प्रकृति तो ऐसा लगेगा
छेड़ी है प्रकृति ने साज़
गर प्रकट मिलन में आये लाज सखी मिलना सपनों में आज

कुछ यादों के गीत कुछ गीतों की यादें......

कौन रंग हीरा कौन रंग मोती
कौन रंग ननदी बिरना तुम्हार ?
लाल रंग हीरा पियर रंग मोती
सँवर रंग ननदी बिरना तुम्हार
फूट गए हिरवा बिथराय गए मोती
रिसाय गए ननदी बिरना तुम्हार
बीन लैहौं हीरा बटोर लैहौं मोती
मनाय लैहौं ननदी बिरना तुम्हार

Saturday, August 21, 2010

किसी रोज़ जिंदगी से मिलायेंगे तुम्हें.......

कभी चाहोगे तो चाहत से बुलाएँगे तुम्हें
दर्द-ए-दिल क्या होता हैये दिखायेंगे तुम्हें
मोहब्बत होती है क्या मोहब्बत कर के देख लेना
फिर मेरे पास आना कुछ और बताएँगे तुम्हें
कभी न आयें आँख में आंसू तो ऐसा करना
एक शाम मेरे पास आना बोहत रुलायेंगे तुम्हें 
हर पल रहोगे मुहब्बत में बेचैन
ख्याल बन कर सतायेंगे तुम्हें
पूछते हो जो जिंदा रहने का सबब चलो
किसी रोज़ जिंदगी से मिलायेंगे तुम्हें

Wednesday, August 18, 2010

आप इसे जरूर गुनगुनाएं.........

काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे

क्या सोच रहें है.........कुछ पल इनके नाम

१.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन? ना सखि! कुत्ता!

२.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि! जाड़ा!

३.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि! तारा!

४.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि! जूता!

५.
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि! चांद!

६.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि! लोटा!

७.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि! ढोल!

८.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि! मक्खी!

९.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि! तोता!

१०.
आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि! पंखा!

११.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि! चंद!

१२.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि! अंजन!

१३.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि! नीर!

१४.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि! पाती!

१५.
सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन? ना सखि! हार!

१६.
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि! बुखार!

१७.
सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि! सपना!

१८.
बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि! राम!

१९.
सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’? ना सखि! लोन(नमक)

२०.
सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना,सखि! दिया(दीपक)

२१.
वह आवे तब शादी होय,
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागे वाके बोल
ऐ सखि 'साजन’, ना सखि! ‘ढोल’

Tuesday, August 17, 2010

गांव की बात

गांव की बात
गांव तक ही रहने दो
नहीं तो
शहर सुन लेगा/आयेगा
सुहानुभूति का हाथ बढाकर
और
गांव
हवा पानी आग की तरह
शहर को मान लेगा
अपनी बिरादरी का
और स्वीकर कर लेगा
उसका आतिथ्य
फिर
दस्तख्त कर देगा
कोरे स्टाम्प पेपर पर
और
करता रहेगा
करता रहेगा शहर की चाकरी
पीढी-दर-पीढी
जाने कितनी पीढियों तक....।

Monday, August 16, 2010

ये आजादी है या गुलामी... सवाल है वल्दियत...

पिछल दिनों एक ब्लाग पर एक लेख मिला आप लोगो के साथ बांटने का मन हुआ साथ में लिंक संलग्न है,विषय इतना गंभीर है कि आप सुधी पाठकों के विचार जरूर व्यक्त होना चाहिए....

जन्मभूमि जननी और स्वर्ग से महान है। मेरा देश- मेरी धरती मेरी मां है... फिर राष्ट्रपिता और राष्ट्रपति जैसे शब्दों का क्या मायना है? अगर मां कहलाने वाली हमारी मातृभूमि का अस्तित्व प्राकृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से युगों से कायम है तो क्या हर पांच साल में नया पति (राष्ट्रपति) और कथाकथित आजादी के बाद पिता (राष्ट्रपिता) का क्या औचित्य और इसकी क्या जरूरत... वह भी उस स्थिति में जब प्रेसीडेंट के अनुवाद में राष्ट्राध्यक्ष और आधुनिक भारत के संदर्भ में आधुनिक राष्ट्र के मूलाधार, कर्णधार, शिल्पकार जैसे शब्द मौजूद हैं...

घोटालों, निराशा और आमजन की कीमत पर हो रही राजनीति (इसे सत्ता और शक्ति के लिए गिरोहबाजों की जंग कहें तो ज्यादा बेहतर) के घटाटोप अंधेर में... आधुनिक आजादी के उत्सव की पूर्वसंध्या पर मेरे मन में एक ऐसा सवाल उफन रहा है शायद जिसका जवाब आजाद होने से अब तक या तो मांग नहीं गया है या किसी ने सवाल उठाने की जुर्रत नहीं की है...

देश के चाहे जिस व्यक्ति, दल या तबके को यह शब्द मंजूर हों, लेकिन मेरा मानना है कि मुझे अभी इन शब्दों से आजाद होना बाकी है और उसके बाद गिरोहबाज राजनेताओं से... शायद तब सच्ची आजादी प्राप्त हो जाए...


अधिकारिक टिप्पणी के लिए पधारे...http://kaldevdk.blogspot.com/

Friday, August 13, 2010

क्या जिंदगी है और भूख है सहारा....सारे जहां से अच्छा.....

क्या जिंदगी है और भूख है सहारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
सौ करोड़ बुलबुले जाने शाने गुलिस्तां थी
उन बुलबुलों के कारण उजडा चमन हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
पर्वत ऊंचा ही सही,लेकिन पराया हो चुका है
न संतरी ही रहा वह,ना पासवां हमारा
गोदी पे खेलती हैं हजार नदियां,पर खेलती नहीं हैं
जो तड़फती ही रहती हैं,कुछ बोलती नहीं हैं,
बेरश्क हुआ गुलशन ,दम तोड के हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
अब याद के आलावा गंगा में रहा क्या है
कितनों ने किया पानी पी पी के गुज़ारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
मज़हब की फ्रिक किसको और बैर कब करें हम
है भूखी नंगी जनता गर्दिश में है सितारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
यूनानो,मिश्र,रोमां जो कब के मिट चुके
उस क्यू मे हम खड़े हैं नंबर लगा हमारा
जिंदगी की गाड़ी रेंगती है धीरे धीरे
घर का चिराग अपना ,दुश्मन हुआ हमारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा

(बरबस ही याद हो आया फिर भी मेरा देश महान )

Thursday, August 12, 2010

मां

मां संवेदना है,भावना है अहसास है
मां जीवन के फूलों में खुशबू का वास है
मां रोते हुए बच्चे का,खुशनुमा एहसास है
मां मरुस्थल में नदी या मीठा सा झरना है
मां लोरी है,गीत है,प्यारी सी थाप है
मां पूजा कीथाली है,मंत्रों का जाप है
मां आंखों का सिसकता हुआ किनारा है
मां गालों पर पप्पी है,ममता की धारा है
मां झुलसते दिनों में,कोयल की बोली है
मां मेंहदी है,कुंकुम है,सिंदूर है,रोली है
मां त्याग है,तपस्या है,सेवा है,
मां फूंक से ठंडा किया कलेवा है
मां कलम है,दवात है,स्याही है
मां परमात्मा की स्वयं की एक गवाही है
मां अनुष्ठान है,साधना है,जीवन का हवन है
मां जिंदगी मोहल्ले में ,आत्मा का भवन है
मां चूडी वाले हाथों के मजबूत कंधों का नाम है
मां काशी है,काबा है,और चारों धाम है
मां चिंता है ,याद है,हिचकी है
मां बच्चे की चोट पर सिसकी है,
मां चुल्हा,धुंआ,रोटी,और हाथों का छाला है
मां जीवन का कडबाहट में अमृत का प्याला है
मां पृथ्वी है ,जगत है,धुरी है
मां बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है
मां का महत्तव दुनिया में कम  हो नही सकता
मां जैसा दुनिया में कुछ हो नही सकता

(आदरणीय स्व.व्यासजी को विन्रम श्रृद्धांजलि सहित)

कहां पर सबेरा है.....

कदम कदम इतने छल
मिलते हैं पांव को
समझ नहीं आता
जायें किस गांव को
हाथ नहीं सूझ रहा हाथ को
उफ क्या अंधेरा है
सूर्य की कथाएं तो हम सुनते हैं
पर ना जाने कहं सबेरा है

Wednesday, August 11, 2010

हमने चाहा है तुम्हे

हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह
हमसे ना रूठो करो शौक गिजालों की तरह
तेरी जुल्फें तेरे लब,तेरी आंखों के पैमाने
अब भी मशहूर हैं दुनियां में मिशालों की तरह
और क्या इससे ज्यादा कोई नरमी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

Tuesday, August 10, 2010

मैं आपसे पूछता हूं.......क्या ये भारत के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं

ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने भारत और पाकिस्तान में पाए जाने वाले एक नए किस्म के बैक्टीरिया - सुपरबग - की विश्व भर में सख़्त निगरानी का आहवान किया है.....मेडिकल पत्रिका लैंसेट में छपे एक अध्ययन में कहा गया है कि ब्रिटेन में ये बैक्टीरिया उन मरीज़ों के साथ आया है जो भारत या पाकिस्तान में कॉस्मेटिक सर्जरी जैसे उपचार करवा कर लौटे हैं.कहीं वैश्विक स्वास्थ्य व्यापार की रणनीति हिस्सा तो नहीं...जिसमें भारत की चिकित्सा सेवाओं को विवादों में घसीटा जा सके....।क्योंकि अमेरिका समेत यूरोपियन देशों से शिक्षा और स्वास्थ्य के बडे केंद्र फिसल रहे हैं...दसअसल भारत और चीन उन भूमंडलीय ठिकानो में बदल रहे हैं जहां हर किसी के लिए ज्ञान और स्वास्थ्य affordable है.....।

बिन भाषा के गूंगे बहरे राष्ट्र में काहे की आजादी

कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? क्योंकि यह मुद्दा भी देश की उन्नति-प्रगति से जुड़ा है।
हिंदी औऱ हिंदी...!
   मुझे पिछले साल गुजरात का एक मामला याद है जहां  हाई कोर्ट में पीआईएल दायर करते हुए मांग की गई थी कि सामानों पर हिन्दी में डीटेल लिखे होने चाहिए और यह नियम केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लागू करवाए जाने चाहिए। वहीं पीआईएल में कहा गया था कि डिब्बाबंद सामान पर कीमत आदि जैसी जरूरी जानकारियां हिन्दी में भी लिखी होनी चाहिए। जिसके तर्क में कहा गया कि चूंकि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा है और देश के अधिकांश लोगों द्वारा समझी जाती है इसलिए यह जानकारी हिन्दी में छपी होनी चाहिए।इस पीआईएल के फैसले  में चीफ जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने यह कहा कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है क्योंकि हिन्दी तो अब तक राज भाषा यानी ऑफिशल भर है। अदालत ने पीआईएल पर फैसला देते हुए कहा कि निर्माताओं को यह अधिकार है कि वह इंग्लिश में डीटेल अपने सामान पर दें और हिन्दी में न दें। अदालत का यह भी कहना था कि वह केंद्र और राज्य सरकार या सामान निर्माताओं को ऐसा कोई आदेश जारी नहीं कर सकती है। तो दूसरी तरफ अब एक नये सवाल ने एक बार फिर हिंदी और उसकी महत्ता पर प्रश्न चिंह लगा दिया लोगों द्वारा सुझाव दिया जा रहा कि इसे देवनागरी से रोमन कर दिया जाए । पिछले कुछ सालों में हमने ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जितनी आसान राह को पकडना चाहा है पकड़ा है....।हिंदी की यह नई बहस उसी सहजता पाने का एक तरीका है .....लेकिन सवाल यह है कि क्या देवनागरी से रोमन कर देने मात्र से समस्या हल हो जायेगी ........क्या हिंदी की अभिव्यक्ति और उसकी विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा,क्या हमारे विचार वयक्त करने की प्रकृति पर कोई अंतर नही पडेगा...इतिहास गबाह कि विलुप्त की कगार में जितनी भी भाषाएं आई है उनका सबसे बड़ा कारण यही है...(पुराने एक लेख विलुप्त की कगार में भाषाएं में उद्धत है)।और अगर हमने इस रोमन में कर भी दिया तो क्या हिंदी का बच पाना संभव है...है तो फिर किस और कितने रूप में...।भाषा महज संवाद का माध्यम नहीं होती है ....और लिपि का संबंध भाषा से अन्नय रूप से जुडा होता है...। तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण की चपेट में आया युवा जो इसी रोमन को इस्तेमाल कर खुश हो रहा है..। वह हिंदी को भारत से उठा कर इंडिया की तरफ ले जाना चाह रहा है.......।उसे तो वह सहज और सरल हिंदी चाहिए जो उसके सिस्टम(कंप्यूटर) पर सहज रूप से चल सके...।
आखिर हिंदी ही क्यो नहीं .....?
अगर गुजरात हाई कोर्ट के फैसले की बात करें तो कोर्ट का यह फैसला भारत यानी ऐसे देश (राष्ट्र नहीं ) में आया है, जिसमें राष्ट्रभाषा का प्रावधान संविधान में ही नहीं है, यहां उपलब्ध है तो केवल राजभाषा... यानी सरकारी काम की भाषा। यह स्थिति उस हाल में है जब देश की लगभग 60 फीसदी आबादी यानी करीब 65 करोड़ लोग इस भाषा का इस्तेमाल कई बोलियों के साथ करते हैं। अब सवाल यह है कि इनमें से कितने लोग होंगे जो संपर्क भाषा यानी अंग्रेजी नहीं जानते होंगे। जनसंख्यागत और शैक्षणिक आंकड़ों को देखा जाए तो इनमें से ठीक से अंग्रेजी में काम करने वालों का प्रतिशत बमुश्किल 10 से 15 फीसदी निकल पाएगा। यानी दवा के लेबलों से लेकर कानून, शिक्षा और कारपोरेट उत्पादों की बेढंगी दुकानों के उत्पाद और उनकी टर्म एंड कंडीशन इनकी समझ से बाहर होंगी। ऐसे लोगों की संख्या होगी करीब 55 करोड़ यानी लगभग आधा देश। शेष बचे लोगों के हालात क्षेत्रीय भाषा के बाद संपर्क भाषा में कैसे होंगे इस पर तर्क-वितर्क की गुंजाइश है, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे। अब स्वतंत्रता दिवस पर भारत को राष्ट्र कहने का दंभ भरने वाले नेता और अकल बेचने वाले व्यक्ति-संस्थान देखें कि क्या कारण रहा कि आजादी के साठ साल बीतने पर इंडिया (हिंदुस्तान नहीं) के पास आधिकारिक रूप से राष्ट्रभाषा नहीं है, यानी आधी आबादी को भाषा के लकवे से विकलांग कर पढ़े-लिखे जाहिलों के बीच अपनी सत्ता की दुकानें आराम से चलाते रहें।

वोटबैंक के लिए अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी भाषातंत्र व देश में क्षेत्रीय भाषाओं की ओट लेने वाले नेता और ज्ञान-विज्ञान के नाम पर अंग्रेजी की दुहाई देने वाले लोग, इन पचास करोड़ से ज्यादा ज्ञान वंचित हिंदी भाषियों के लिए क्या करेंगे? क्या वे राष्ट्र गौरव के नाम पर हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिला कर चीन, जर्मनी, रूस और जापान की राह पर जाकर सफलता के नए अध्याय लिखेंगे या मानसिक गुलाम नेताओं से पाई बेडिय़ों से आने वाली नस्लों को जकड़े रहेंगे। देश के सर्वोच्च जनप्रतिनिधित्व मंदिर संसद और सुप्रीम कोर्ट में अगर हिंदी को बेहतर जगह मिले तो मातृभाषा में सोचने वालों की इतनी बड़ी संख्या राष्ट्र को नवनिर्माण पथ पर कहां ले जाएगी... अनुमान लगना बेशक कठिन हो पर सोच कर जरूर देखना।
इस देश के मंदिर में कहां दरार नहीं
सही सलामत ए क भी दरों दीवार नहीं है 
मत पूछो किसने लूटा इस गुलशन को
ये पूछो कौन इस लूट में हिस्सेदार नहीं है...

Monday, August 9, 2010

क्यूं कहते हो मेरे साथ कुछ भी बेहतर नही होता

.क्यूं कहते हो मेरे साथ कुछ भी बेहतर नही होता
सच ये है के जैसा चाहो वैसा नही होता
कोई सह लेता है कोई कह लेता है क्यूँकी ग़म कभी ज़िंदगी से बढ़ कर नही होता
आज अपनो ने ही सीखा दिया हमे
यहाँ ठोकर देने वाला हैर पत्थर नही होता
क्यूं ज़िंदगी की मुश्क़िलो से हारे बैठे हो
इसके बिना कोई मंज़िल, कोई सफ़र नही होता
कोई तेरे साथ नही है तो भी ग़म ना कर
ख़ुद से बढ़ कर कोई दुनिया में हमसफ़र नही हो

Friday, August 6, 2010

मैं तुम्हे पूजूं तुम मुझे आजान दो

             तुम हो  हिंदू तो  मुझे मुसलमां जान लो
            तुम हो गीता तो मुझे कुरान मान लो
             कब तक रहेगें अलग अलग और सहेगें जुदा जुदा
             मैं तुम्हे पूजूं तुम मुझे आजान दो

Thursday, August 5, 2010

महंगाई डायन खाय जात है

 
पूरे देश में मंहगाई के खिलाफ आग लगी है असली हकीकत पंकज झा ने कही आप सबके सामने प्रस्तुत है
आजकल जहां सभी समाचार माध्यमों पर जन-सरोकारों से दूर चले जाने का आरोप लग रहा है, वही कथात्मक माध्यम ‘सिनेमा’ कभी-कभार बड़ा सन्देश दे जाता है. अभी आमिर खान की फिल्म “पिपली लाइव” अपने एक गीत द्वारा ऐसा ही सन्देश देने में सफल रही है. “सखी सैयां तो खूबे कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है “ केवल इस गीत के माध्यम से ही आज के महंगाई की विकरालता समझ में आ जाती है. इस गाने में महंगाई को ‘डायन’ का विशेषण शायद इसीलिए दिया गया है क्योंकि राक्षसियां भी कम से कम अपने बच्चों या परिजनों को नहीं खाती, जबकि अपने भी बच्चों पर रहम नहीं करने वाली को ‘डायन’ कहते हैं. उपरोक्त शब्दों को केवल ‘रूपक’ के रूप में लेते हुए बिना किसी तरह के अंधविश्वास को बढ़ावा देते हुए केवल इतना कहना होगा कि वास्तव में महंगाई आज-कल डायन का शक्ल ही अख्तियार की हुई है. अब इसको बढ़ावा देने का जिम्मेदार जो सरकार है उसे आप क्या कह सकते हैं, खुद ही विचार ले. वास्तव में आम आदमी के साथ केंद्र की कोंग्रेस नीत सरकार द्वारा किये जा रहे विश्वासघात को परिभाषित करने में कोई भी नकारात्मक विशेषण कम होगा. बस यही कहा जा सकता है कि संप्रग की हर तरह के कूनितियों के बाद भी अगर बांकी कुछ बच गया था तो उसको महंगाई मार गयी.
आप कल्पना करें कि यह महंगाई तो उन मुट्ठी भर नागरिकों के लिए ‘डायन’ है, जिनके सैंया खूब कमात हैं’. लेकिन उनकी हालत क्या जिनके ‘सैयां’ देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं में शामिल है? हो सकता है पूर्ववर्ती चिदंबरम के कथित विकास दर ने कुछ समृद्धि के द्वीपों का निर्माण कर दिया हो. महंगाई के औचित्य-निरूपण के लिए कई बार सरकार की तरफ से लोगों के ‘खूब कमाने’ वाले जुमले का इस्तेमाल भी किया जाता है. लेकिन देश के मेहनत-कश किसान, गाँव के उन गरीबों के बारे में सोचिये जिन्हें इस कथित विकास से कोई लेना-देना नहीं है. रोज कमाने और खाने वाले लोगों के लिए किस तरह कोढ़ में खाज साबित होता होगा महंगाई यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. जमाखोरों और बिचौलियों को प्रश्रय देने वाली केंद्र कि इस सरकार में ही संभव है कि जहां हर उपभोक्ता वस्तुओं के भाव आसमान छू रहे हो वही उसको उपजाने वाला किसान, फसल का उचित मूल्य ना मिलने के कारण, कर्ज़दार हो आत्महत्या कर रहा हो. विडंबना यह कि अपना ‘चीनी’ बेच लेने के बाद इन चीज़ों के जिम्मेदार कृषि मंत्री को क्रिकेट से ही फुर्सत नहीं. उसी तरह जैसे ‘अपना बंगाल’ हासिल करने की फिराक में ममता जी को हादसों या हमलों में रेल यात्रियों के मरते जाने की फिकर ही नहीं.
सोनिया जी के संरक्षण में चलने वाली मनमोहन जी कि इस सरकार को इस भद्दे मजाक के लिए भी जाना जाएगा कि जहां कृषि मंत्री के क्षेत्र में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते हों वही रेल मंत्री के सूबे में सबसे ज्यादा रेल हादसे/हमले होते हो. आप सोचेंगे तो ऐसे क्रूर मजाकों की श्रृखला आपको नज़र आयेगी. मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि केंद्र कि इस जन विरोधी सरकार के रहते लोगों की न जान सुरक्षित है और ना ही महंगाई के कारण उसका माल. महंगाई का यह करेला ही क्या कम था कि उसमे फिर से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम में जबरदस्त वृद्धि कर नीम भी चढ़ा दिया गया है. तो पता नहीं यह सरकार अपने ही लोगों से किस जनम का बदला भंजा रही है. जैसा कि तथ्य है कि महंगाई के इस चोर कि मां होती है पेट्रोलियम पदार्थों का महँगा होना. केवल एक इस मूल्य वृद्धि से ही ढुलाई खर्च बढ़ जाने, सिचाई आदि महंगा हो जाने के कारण चीज़ों के दाम में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है. लेकिन चैन की वंशी बजाते किन्ही मनमोहनी ‘नीरो’ को इन सब चीज़ों का परवाह करने की ज़रूरत ही क्यू हो?
वैसे यह संतोष की बात है कि कुम्भकर्णी इस सरकार का नींद तोड़ने के लिए इस बार लग-भग सम्पूर्ण विपक्ष, अपनी वैचारिक आग्रह-दुराग्रह को भुला कर मैदान में कूद पड़ा. भाजपा की अगुआई में वामपंथी से लेकर सभी दल के लोगों ने जिस तरह से भारत बंद का आयोजन कर सरकार को जगाने की कोशिश की, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह एक उपलब्धि ही माना जाना चाहिए. उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार थोड़ा सा सम्ह्लेगी अन्यथा जनता को चाहिए कि मौका मिलते ही केंद्र की इस जनविरोधी सरकार को उखाड फेके. इस सरकार का सत्ता में बने रहना वास्तव में देश के पीढीयों को महँगा पड़ने वाला है. केंद्र के इस सरकार को वोट देने के लम्हों की खता को शायद देशवासी सदियों तक की सज़ा के रूप में भोगने को अभिशप्त होंगे.
इस और टिप्पणी करने के लिए कृपया इस लिंक पर आए
http://www.pravakta.com/?p=11700

Wednesday, August 4, 2010

देश और बीवी

संवैधानिक मत का अधिकार 18 साल

संवैधानिक शादी का अधिकार 21
इसका मतलब है कि सरकार भी जानती है कि आदमी 18 साल की उम्र में देश तो संभाल सकता है लेकिन बीवी नहीं............

Tuesday, August 3, 2010

ये कोई गैर मामूली बात नहीं

ये कोई गैर मामूली बात नहीं
कि मेरी तलाशी ली गई
औऱ मेरे दिल को मुझसे छीन लिया गया
और न ये कि मुझे निकालनें के लिए
मेरे घर को आग लगा दी गई
औऱ न ये कि
कुत्ते पकडने वाली कैंची
मेरी कमर में फंसा कर
मुझे ट्रक में डाल दिया गया
और न ये कि
जलता हुआ कोयला
अपनी मुट्टी में छुपाकर
मैने पूछा
मेरे हाथ में क्या है
औऱ
तुम कोई जबाब नहीं दे सकी

Monday, August 2, 2010

गा दोगे जो तुम गीत मेरे......

जाने कितने मरने वाले इनसे जीवन पा जायेगें
गा दोगे तुम गीत मेरे तो ये अमुत बन जायेगें
मद मस्त पवन हो जायेगी कोयल सुनकर शरमाएगी
कण कण नर्तन कर झूमेगा,सुर लोक धरा हो जायेगी
गंधर्व अप्सराएं धरती पर,आने को ललचाएगें
गा दोगी जो गीत...
छूकर अपने अधरों से तुम,इन गीतों पावन कर दो
पार्थिव देह में भावों के सांसों का स्पंदन भर दो
वाणी में बंधकर जीते जी,ये तो तर्पण पा जायेगें
गा दोगी जो गीत मेरे तो ये अमृत बन जायेगें..

(यूं ही याद तुम्हारी याद आ गई)

जीवन

सोचा जाये तो साबत जीना औऱ भीतर बाहर से जीना यह जीने का सबसे सरल तरीका होना चाहिए,क्योंकि यही तरीका सबसे ज्यादा logocal  है। पर यह बात समझ में नहीं आई कि यही तरीका सबसे ज्यादा मुश्किल क्यों है? जो तरीका बाकी सारी कायनात जीवन क्रम में कोई रूकावट नहीं डालता ......धूप बिखर जी सकती है,फुल,पेड़,आकाश ,की ओर विकास करके जी सकते है,सहज और सरल।पर उसी तरीके से  जब मानव जीना चाहता है तो उसका नतीजा आमतौर पर ट्रेजडी और अकेलापन क्यों होता है?