नदी घरोंदे खेल -खिलौने बचपन अच्छे लगते थे
वो भी कैसे अच्छे दिन थे धूप के जंगल हंसते थे
मीलों फैले सन्नाटे,जादू ढलती शामों का
रस्ते रस्ते पगडंडी के रह रह घूंघरू बजते थे
दिन कोई बंजारों जैसे आते जाते बस्ती में
रातें जलें अलावों जैसी सुख दुख भीगे किस्से थे
ऋतुएं आंधी पानी जैसी मौसम कई बुजुर्गों से
कुशलक्षेम आते जाते की अक्सर पूछा करते थे
रिश्तों की अपनी परिभाषा पानी था संबंधों का
भोले भाले सीधे साधे लोग आईनों जैसे थे
सबके अपने अपने बोझे एक सोच थी एक सफर
छोटे बड़े पराए अपने सभी एक से दिखते थे
2 comments:
मेरे बचपन के दिन में चाँद पे परिया रहती थी
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
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