रातों में उठ-उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
सुनकर अपनी ही प्रतिध्वनियां मन एकाकी हर पल हारा
सन्नाटों के कोलाहल में मन की वाणी खो जाती थी
विस्तृत अंतर के आंगन में यादें चंचल हो जाती थी
जब जब झपकी बोझिल पलकें मैने देखा रूप तुम्हारा
रातों को उठ उठकर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
दूर गगन से चांद सितारे देख रहे थे मन की पीडा
आंसू के सागर में पुतली करती रही मीन सी क्रीडा
उषा की किरणों तक प्रियतम चलता रहा खेल ये सारा
रातों को उठ उठ कर तुमको मैने कितनी बार पुकारा
क्षण क्षण यादें और यामिनी करती रहीं प्यार की बातें
पास पडा मन रहा सिसकता तकता रहा भोर का तारा
रातों को उठ उठ कर तुमको प्रियतम मैने कितनी बार पुकारा...
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