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Sunday, October 10, 2010

कैसे हो गए हैं हम और हमारा देश

कैसा होता जा रहा है अपना देश और कैसे हो गए हैं अपने देश के लोग। भारत रूपी समाज में कोई ऐसा समूह नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पैर नहीं जमा रखे हों। किसी भी वर्ग पर आंख मूंद कर विश्‍वास करना दूभर हो गया है। पहले तो राजनीति बदनाम हुई, फिर पुलिस प्रशासन। पर अब कार्यपालिका, न्यायपालिका, खेल-क्रिकेट, हॉकी, गैर सरकारी/राजनीतिक संगठन, यहां तक धार्मिक संगठन भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे हैं।...तो क्या भ्रष्टाचार का वर्चस्व चारों तरफ इसी तरह बढ़ता रहेगा ? और क्या एक दिन भ्रष्टाचार का, आचार पर पूरी तरह से अधिपत्य हो जाएगा? तब क्या भ्रष्ट होना योग्यता होगी और ईमानदार होना अयोग्यता? यानी एक पुराने गाने की वह पंक्ति- एक दिन ऐसा कलयुग आयेगा, हंस चुगेगा दाना-तिनका, कौआ मोती खायेगा-सार्थक हो जाएगी। हम सब भ्रष्टाचार के दलदल में धंसते चले जाएंगे और सब एक-दूसरे को ठगने-लूटने की फिराक में रहेंगे। धर्म के स्थान में अधर्म होगा और साधु-संतो के स्थान पर पाखंडी। किसी को दूसरे के लिए सोचने की जरूरत नहीं होगी। स्वार्थ सबसे बड़ी नैतिकता होगी। घर के बूढ़े-बुजुर्ग जब काम करने में असर्थ हो जाएंगे तो उन्हें मरने के लिए किसी विराने में छोड़ दिया जाएगा। रिश्‍ते बस नाम और स्वार्थ के लिए होंगे। अंधी वासना के आगे किसी तरह के रिश्‍ते कोई मायने नहीं रखेंगे। लोगों को पूरी आज़ादी होगी-किसी भी तरह के कुकर्म और भ्रष्टाचार करने की।....कितना अच्छा होगा न!, हम तो ऐसा ही चाहते हैं न!

क्या आप ऐसा नहीं चाहते। तो क्या आप केवल खुद ही भ्रष्ट बने रहना चाहते हैं और यह कि शेष लोग आपको ईमानदार समझते रहें। ताकि आपको अन्य लोगों से कोई खतरा नहीं हो। भले ही अन्य लोगों के हक मारने में आप उस्ताद हों।....चुप क्यों हो गए। बंधुवर कहने और आचारण में लाने में बहुत फर्क होता है। आप दूसरे से जिस आचरण की अपेक्षा रखते हैं, वहीं आचरण आप खुद करने से क्यों कतराते हैं। इसलिए कि इसमें भौतिक फायदा कम और मेहनत ज्यादा है। सादगी ज्यादा और ऐयाशी कम है। अब आपको लगेगा कि यह लेखक हमें उपदेश देने की कोशिश कर रहा है। यह खुद कितना ईमानदार है, जो सबसे ऐसे सवाल कर रहा है? यदि आपके मन में यह सवाल उठा तो बुरा न मानें-बल्कि खुद को किसी न किसी स्तर के भ्रष्टचार का समर्थक मान लें। यदि आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो निश्चित तौर पर समझ लें कि आपके अंदर भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है, जिसके दुष्प्रभाव से इस समाज कोई अन्य नहीं बचा सकता।

यानी, इसी तरह से हम भ्रष्टाचार के गुलाम होते जाएंगे और एक दिन हमारे समाज पर भ्रष्टाचार का राज होगा, और जो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचारी होंगे वही इस समाज पर राज करेंगे।....वर्तमान में भ्रष्टाचार के प्रति भारत रूपी समाज के शासक, प्रशासक और जनता की जैसी प्रतिक्रिया है, उसे देखकर तो भ्रष्ट भारतीय समाज की कल्पना करना मुश्किल नहीं लगता।....

....तो क्या वाकई में हम ऐसा ही चाहते हैं ? प्रतिदिन के अखबार, न्यूज चैनलों के बुलेटिन भ्रष्टाचार की खबरों से जो भरे रहते हैं, उन्हें देखकर क्या आपको मजा आता है? अफसोस नहीं होता? यदि होता है तो क्यों नहीं इसका प्रतिकार करते हैं। कहेंगे आप अकेले क्या कर सकते हैं। आप खुद को तो भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते हैं। कोई अनैतिकता, बेईमानी, कर्तव्यविमुखता छोटी नहीं होती है, उसी को छोड़कर आप भ्रष्टाचार का प्रतिकार कर सकते हैं। सच का दामन थाम कर हो सकता है, कुछ दिनों आपको थोड़ी दिक्कत हो, पर प्रतिकार इतना आसान नहीं होता, उसके लिए दिक्कत सहना ही पड़ेगा। ऐसा करना एक आंदोलन करने जैसा ही है। यदि ऐसा ज्यादातर लोग करने लगे तो कल्पना कीजिए क्या अपने समाज में भ्रष्टाचार का वर्चस्व कभी जम पायेगा....नहीं न। तो फिर आप किस दिशा में जाना चाहते हैं भ्रष्टाचार की ओर या आचार की ओर। समाज के ऐसे किसी नेता, कार्यकर्ता, प्रशासक, कर्मचारी, व्यापारी, एजेंट से कोई ऐसा काम नहीं करवाये, जिसके लिए वह भ्रष्ट तरीके अपनाता हो। घूस लेने व देने वालों का प्रतिकार करें। आपकी नजर में खराब नेताओं को किसी भी शर्त या लालच या डर में वोट नहीं दें।

क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यह सवाल भी काफी महत्वपूर्ण है। पिछले साठ सालों की बेफिक्र जीवन ने हमारे दिल-दिमाग पर कई तरह की बुराइयों के परत जमा दिये हैं और वे हमारे लिए आम बात हो चुकी हैं। ऐसे में उन बुराइयों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। ऐसे में, इसके दंश झेल रहे लोगों पर नजर डालें। लंबी लाइन में ईमानदारी से घंटों खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करने वाले उन साधारण आदमी को देखें, जिनकी बारी का हक मारकर आप अपनी पहुंच और पहचान के बल पर लाइन तोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। आप कहेंगे, यह सब नहीं करने से तो समय पर आपका कोई काम ही नहीं होगा, फिर तो आप समाज में पीछे रह जाएंगे।...तो क्या लाइन में खड़े लोग को आगे नहीं बढ़ना है?...यदि हां, तो थोड़ा कम आराम कीजिए।

आप अपने घर-परिवार के लिए इतनी मेहनत करते है, तो क्या उस समय में से दस-पांच मिनट दूसरे के लिए भी नहीं दे सकते। ऐसा करके देखिएगा, बदलाव आपके सामने दिखेगा और उससे जितनी खुशी और आनंद आपको मिलेंगे, उतना कार पर लांग ड्राइव लेने, यारों के साथ बियर की बोतले गटकने से भी नहीं होगा।

भाई साहब...यदि इंसानियत और मानवता का आनंद और भी आसानी से प्राप्त करना हो तो मेरा एक सुझाव चाहें तो मान सकते हैं-यह सुझाव मैं निजी अनुभव के आधार पर दे रहा हूं-मानना न मानना आपकी इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि इंसानियत और मानवता का आनंद उठाने के रास्ते अनेक हैं, पर सबके मूल में एक ही परमात्मा है। क्योंकि सबका मालिक एक ही है। और मैं इस परम वाक्य के वक्ता और परमात्मा के प्रवक्ता, करूणा के अवतार बाबा साईनाथ की शरण में जाने और उनका अनुसरण करने की आपसे आग्रह करता हूं। भारत रूपी समाज को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए मुझे लगता है कि बाबा की भक्तिमार्ग को अपनाना सबसे सरल रास्ता है।

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