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Sunday, June 6, 2010

शादी, समाज और महिलाएं



इन दो घटनाओं पर नजर डाले
पहली घटना है खास समुदाय द्वारा जारी फरमान जिसमें गोत्र में शादी करने के बाद पति पत्नी को अगर जिंदा रहना है तो उन्हें भाई बहन बनना होगा। दूसरी घटना बुलंदशहर की जहां अपनी मर्जी से शादी करने वाले लड़की के खिलाफ समाज ने सजाए मौत का फरमान सुना दिया। मेरा कहने का मतलब आप समझ गए होगे मै बात कर रहा हूं विकसित होने को आतुर भारत में शादी और समाज के बीच झंझावात में फंसे युवा और खासतौर पर महिलाओं की। भारत पुरूष प्रधान देश है लेकिन देश के गौरव को ऊंचा उठाने एवं पुरूषों को समानजनक स्थान तक पहुंचाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आजादी के बाद मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के तहत महिलाओं को पुरूषों की तरह समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारत के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के परिणाम स्वरूप ग्रामीण एवं नगरीय पंचायतों में महिलाओं हेतु एक तिहायी स्थानों को आरक्षित करे उन्हें चूल्हे चौके से बाहर निकाला गया। संविधान का 108वां संविधान संसोधन जिसमें महिलाओं के लिए 33 फीसदी का आरक्षण है भारी बहुमत से पारित हुआ। पिछले 3 चार दशकों से नारी के लिए तरक्की के लिए कई दरवाजें खुले है। लेकिन फिर भी उसकी जिंदगी एक सीमित घेरे में घूमती रही। आज महिलाएं करूणा, त्याग, उदारता, कोमलता आदि गुणों से परिपूर्ण तो है ही साथ ही शारीरिक, मानसिक, राजनैतिक, व्यवसायिक स्तरों पर भी अपनी पहचान दिलाई। बावजूद इसे आज भी महिलाओं का अपने लिए फैसले लेना समाज के लिए चुभने जैसी बात होती है। अपनी मर्जी से शादी करने वाली महिलाएं आज भी समाज के लिए क्रोध का केन्द्र बिंदु होती है।

तस्वीर का दूसरा पहलू
आर्थिक कठिनाईयों से जूझते हुए समाजिक वर्जनाओ और विषमताओं को तोड़ना महिलाओं के लिए आज भी नामुकिन है। भारतीय नारी में अदम्‍य क्षमता और मानसिक परिपक्‍वता के बावजूद वह जिस चौराहें पर खड़ी है उसे चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे और दुर्गम चट्टाने है। राजाराम मोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती तक शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से लेकर पर्दा प्रथा की समाप्ति तक खुली हवा में सांस लेने वाली भारतीय नारी भले ही बाल विवाह, सती प्रथा, देवदासी के जीवन जीने से बच गई हो लेकिन घर की चारदिवारी को लांघ कर अपने लिए समानित जीवन जीने कल्पना करने वाली भारतीय नारी जीवन भर मानिसक तनाव और घुटन महसूस करती है। मल्टीनेशनल कंपनियों में बडे़ पदों पर बैठी हुई महिलाएं हो या फिर खेत खलिहानों में फसल काटने, बोझा ढोने वाले मजदूर, या फिर जेठ की चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे गोद में मासूम बच्चों को बांधे सड़क किनारे पत्थर तोड़नी वाली महिला जिसे सहानुभूति और दया तो मिलती है लेकिन समाज आज भी उने लिए गए फैसले के प्रति करूण नहीं। आज यह पीढ़ी पढ़ी लिखी है स्वतंत्रत है किंतु कहीं न कही दहेज की तेज लपटों में तंदूरों में जलाई जाती है तो कहीं स्कूल कालेज के चौराहों पर बलात्कार का शिकार बनाई जाती है तमाम कानूनी और प्रशासनिक उपायों के बीच आज भी कुटू बाई सती कर दी जाती है। तो तारा को निवस्त्र घुमाया जाता है तो कहीं खंडवा में उसकी नीलामी होती है तो कहीं भुनी नैना साहनी, तो कही शिवानी और मधुमिता हत्या कांड होता है। हर 7 मिनट में किसी महिला से छेड़छाड़ और लूटपात होती है हर 24वें मिनट में यौन शोषण का शिकार होती है। हर 54वें मिनट में बलात्कार का शिकार होती है। हर 102 मिनट में एक महिला दहेज के नाम पर उत्पीड़न की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में हमारे विकसित होने की सारे दभ धरासाई हो जाते है। घर के बाहर निकलते ही भारतीय नारी के दिमाग में एक ही चीज रहती है कि कोई नजर उसे पीछे है उसे हल पल अपने साथ होने वाली दुर्घटना की आशंका न जीने देती है न मरने देती है।

3 comments:

शरदिंदु शेखर said...

perfect vision....

आचार्य उदय said...

आईये जानें .... मन क्या है!

आचार्य जी

Udan Tashtari said...

विचारणीय!!